दृश्य जरा पलट कर देखते हैं, केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, किसान 62 दिनों से सड़कों पर हों, 50 के लगभग मौतें हो चुकी है, फिर एक कांग्रेस का ही कार्यकर्ता लाल क़िले पर झंडा फहरा देता है और पुलिस आधी रात में किसानों पर लाठियाँ बरसाती है और आयोजकों पर ही मुक़दमा कर देती है।
अगली सुबह पूरा माहौल ‘राष्ट्रवादी’ है, बैकग्राउंड में ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ गीत के साथ फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता चल रही है। बड़ा बड़ा पोस्टर लगा है ‘किसानों के सम्मान में, भाजपा मैदान में’।

भक्त ट्रेंड कर रहे हैं #NationWithFarmers और टीवी पर ऐंकर की आँखों में आँसू हैं।
क्या केंद्र सरकार जनता से प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार भी छीन लेगी जैसे ‘सम्पादकीय’ से अख़बार पटे पड़े हैं, भाजपा मुख्यालय से घोषणा होती है ‘कांग्रेस की इस तानाशाही के खिलाफ हम देश भर में किसान पंचायतें बुलाएँगे’, रिवाज के तौर पर कुछ ट्रैक्टर रवाना कर दिए जाते। वाह क्या सीन है।
सरकार का पक्ष दिखाने वाला चैनल presstitute हो जाता, आखिर संघ की शाखाकाल से स्वयंसेवक पढ़ते आए हैं ‘भारत कृषि प्रधान देश है’ और ‘किसान हमारा भगवान’

‘खेती किसानी से मेरा पुराना नाता है’ कहते हुए कुछ फकीरों की आँखों से अश्रु झर झर कर गिरते और चाटुकारों की वाह वाह से आकाश गूंज जाता।
संत के भेष में छिपे व्यापारी भी कहते ‘हम किसानों के साथ हैं’, हाँ शायद डंडे चलते ही वो बुर्का पहन कर भाग खड़े होते पर उनका दिल किसानों के साथ रहता। देशभक्ति के इस माहौल से किसान गद गद होकर अपना मूल आंदोलन भूल ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अभियान शुरू कर देता और फिर आती भाषणों की आँधी।
आज भी दृश्य नहीं बदला, बस सरकार बदली है, दशा तो नहीं बदली मनोदशा बदली है, न जवान बदला न किसान बदला हाँ कुछ प्राथमिकताएँ बदली हैं, बहुमत देने के बाद सरकार से सवाल पूछने की परंपरा बदली है, आज जिसे ग़ुलाम कहा जा रहा है वो आज़ाद हैं, और भक्त जिसे आज़ादी मानते हैं वो ‘मानसिक ग़ुलामी’।
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