भारत सरकार द्वारा आदेश के अनुसार कुछ संस्थाओं में प्रौद्योगिकी शिक्षा को भारतीय भाषाओं में देने की शुरुआत होगी।

@vakibs द्वारा लिखी गयी ट्वीट्स की इस श्रृंखला का में हिंदी अनुवाद कर रहा हूँ।
यहां @vakibs ने हिंदी भाषा मैं पढ़ाने वाले नए अध्यापकों के साथ अपना अनुभव साजा किया है। https://twitter.com/vakibs/status/1344390696275488774
भरतीय भाषाओं में शिक्षा देते वक़्त सब्से बड़ी समस्या होती है कि इन भाषाओं में पढ़ाने के लिए पहले से कोई कोर्स मटेरियल और पुस्तकें उपलब्ध नहीं है।
लेखक का कहना है कि वह भी अधिकतर भारतीयो की तरह अंग्रेजी माध्यम में ही पड़े हैं। लेकिन अब वह जर्मनी के एक विश्वविद्यालय मैं पड़ा रहे हैं और उनका अनुभव आने वाले हिंदी भाषी अध्यापकों के लिए मददगार साबित होगा।
लेखक का कहना है कि वह कभी जर्मन भाषा के ज्ञाता नए थे और उन्होंने जर्मन को खुद से ही सीखा है। लेखक की विडंबना को उन भारतीय अध्यापक के साथ देखा जा सकता है जो भरतीय भाषाओं में नहीं पड़े।
शुरुआत मुश्किल होती है लेकिन इसे क्रियान्वत किया जा सकता है।
लेखक कई ऐसे कॉर्स पढ़ाते हैं जिन्हें पढ़ाने के लिए जर्मन अनुवाद उपलब्ध नहीं हैं। इस ही करण से वह अपनी कोर्स सामग्री को इंग्लिश शोध लेख कि सहायता से ही बनते है। इस हि समस्या का सामना भारतिय अधयापकों को भी करना पड़ेगा।
कई जगह पर जर्मनी और भारत का आकलन एक साथ नहीं किया जा सकता क्योंकि

ज्यादातर कोर्सेज के लिए तैयार मटेरियल उपलब्ध हैं और बचपन से शिक्षा भी जर्मन भाषा में ही दी जाती है।

कई प्रोजेक्ट के लिए जर्मन भाषा में शोध कार्य उपलब्ध है।
शुरुआत से लेकर छः स्तर तक एक भाषा में शास्त्रीयता किस स्तर तक मौजूद है इस बात का आंकलन किया गया है।
हर स्तर पर कोर्स संसासाध कैसे जुटाने है यह लेखक ने अपने अनुभव द्वारा साजा किया है।
Level-0 वचन వాక్కు (speech):

इस स्तर पर कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं होती है और सारे लिखित कार्यों को तो अंग्रेजी में ही किया जाता है लेकिन गुरु शिष्य के बीच संवाद अपनी भाषा में होता हैं।
ऐसा कई संस्थाओं में हो रहा है जहां अधिकतर लोग एक भाषा बोलते है पर परीक्षा और सभी लिखित सामग्री सिर्फ अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं।
लेकिन इस तरह से सिर्फ अनौपचारिक प्रयोग करने के कारण भाषा अल्पकालिक हो जाती हैं, अपनी ही भाषा को निम्न मान लिया जाता है और ज्यादातर लोग अपने आप को समझदार बताने के लिए अंग्रेजी भाषा के उपयोग को प्राथमिकता देते है।
कई संस्थाओं में तो अंग्रेजी के अतिरिक्त किसी और भाषा में बात करने पर भी जुर्माना लगा दिया जाता है। शुरुआत भरतीय भाषाओं को बोलने की अनुमति देने से होगी।
जब कोई विद्यार्थी डिक्शनरी का इस्तेमाल करना चाहे तो उसे इजाजत देनी चाहिए।
विद्यार्थियों को अपनी भाषा में बात करने पर असमान्य ना महसूस हो इस बात का शिक्षक ध्यान रखें। Level 0 के स्तर का कम्फर्ट अपने विद्यार्थियों को देना हर शिक्षक के हाथ मे होता हैं।
Level-1 पाठन పాఠనం (teaching):

इस स्तर पर किताबें तो उपलब्ध नहीं होती लेकिन शिक्षक लेक्चर स्लाइड्स को अपनी भाषा में बनाने लगता है। कई बार टेक्निकल शब्दों का मातृभाषा में अनुवाद भी किया जाता है। हालांकि वैज्ञानिक शब्दकोश अभी भी शुरुवाती स्तर पर ही होता है।
लेखक ने लेवल 1 के स्तर पे कुछ मास्टर कोर्स (neural networks, 3D computer vision), और साथ ही कुछ बैचलर्स कोर्स लेक्चर दिये है (fundamentals of multimedia), जहां कोई पुस्तक जर्मन में उपलब्ध नहीं थीं।
लेखक ने पहले लेक्चर स्लाइड्स को इंग्लिश में बनाया और फिर जर्मन मैं अनुवाद किया।
क्योंकि लेखक जन्म से जर्मन भाषी नही है तो वो अपनी पत्नी और अपने विद्यार्थियों की मदद लेकर लेक्चर स्लाइड्स को बेहतर बना देते है।
कोर्स में विद्यार्थियों की प्रेजेंटेशन को शामिल करने से वैज्ञानिक शाब्दकोश बढेगा।
लेखक के पढ़ाने का तरीका काफी ज्यादा प्रोजेक्ट ओरिएंटेड हे जिसके कारण सेमेस्टर के अंत में बहुत सारी प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार हो जाती है जहां लेखक को नए वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दो की छाप दिखती हे।
इस तरीके से लेखक को अगले सेमेस्टर में अपनी स्लाइड्स को सुधारने का मौका मिलता है।
IIT और NIT जैसे संस्थान इन तरीकों का इस्तेमाल करके और विद्यार्थियों की मदद लेकर भारतीय भाषाओं में नया वैज्ञानिक शब्दकोश बना सकते है।
Level-2 ग्रन्थ గ్రంథం (books):

पहली विज्ञान की किताबें स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताबें नहीं होती बल्कि सरकार द्वारा प्रायोजित वैज्ञानिक रिपोर्ट होती है। जर्मनी के अंदर BMBF और अन्य शोध संस्थान अपनी शोध रिपोर्ट को जर्मन भाषा में ही मांगते हे।
यह सरकारी प्रोजेक्ट रिपोर्ट उन नई शोध पत्रिकाओं को संशिप्त में अपने देश की भाषाओं में छापती हे। अकसर एक वैज्ञानिक शब्दकोश के साथ।
यहाँ तक की फ्रांस में तो डॉक्टरल स्टूडेंट्स अपने शोध के थीसिस की समरी को फ्रेंच में लिखने के लिए बाधित है। फ्रेंच मूल के विद्यार्थियों को फ्रेंच भाषा में ही थीसिस जमा करने को कहा जाता है, उन्हें छूट भी मिल सकती है।
ऐसे कानून जर्मनी में तो नहीं है लेकिन राष्ट्रीय शोध संस्थान द्वारा प्रायोजित सारि शोध पत्रिकाएं जर्मन भाषा में ही होती है। यह काम अनेक लोगों द्वारा मिलकर किया जाता है और प्रोजेक्ट प्रेजेंटेशन भी जर्मन भाषा में ही होती है। यह रिपोर्ट किसी के भी द्वारा डाऊनलोड करि जा सकती है।
वैसे तो ग्रांट एप्लीकेशन पब्लिक में उपलब्ध नहीं है लेकिन ऐसे भी कई ग्रांट होते हे जहां भाषा का जर्मन होना अनिवार्य हे। इन सब को राष्ट्रीय शोध संस्थान द्वारा संयोजित किया जाता है जो आने वाली नई खोज के लिए एक बहुत विराट शब्दकोश एकत्रित करने की क्षमता रखता है।
जैसे जैसे मातृभाषा में टेक्निकल शोध बढ़ेगा टेक्स्ट बुक भी आने लगेंगी। यह किताबे अक्सर उन प्रोफेसर द्वारा लिखी जाती हे जिन्हें कोर्स मटेरियल पढ़ाने का काफी समय से अनुभव है, कई बार नए शोधकर्ताओं द्वारा भी लिखी जाती है।
इन भाषाओं में लिखी गई नई वैज्ञानिक किताबें अकादमिक पब्लिकेशन मानी जाती है, जो प्रोफेसर यह किताब लिखते हे उन्हें अपनी अकादमिक प्रोफाइल बेहतर करने में मदद करती हे। इसे देखकर ऐसा लगता है कि टेक्स्टबुक लिखने का कार्य जमीनी तौर पर शुरू होता है, ना कि सरकार द्वारा थोपा जाता है।
हमें यह समझना होगा की भारतीय भाषाओं में नई वैज्ञानिक और तकनीकी किताबें आने में कुछ सालों का समय लगेगा। सबसे पहले हमे पूरा अकादमिक ढांचा खड़ा करना होगा, जिसमें समय लगेगा।
Level-3 विज्ञता విజ్ఞత (learned society):

जब विद्याविदो का ऐसा समाज तैयार हो जाता हे जो मातृभाषा में पड़ता और पढ़ाता है। वह वर्ग अपने अकादमिक समाज में मातृभाषा के अंदर कॉन्फ्रेंस करना और शोध पत्रिका छापना शुरू कर देंगे।
ईन विद्ववानों में से जो लोग अखबार, निबंध और किताबों द्वारा समाज के बड़े वर्ग तक पहुँचेंगे तब टेक्नोलॉजी के नैतिकता पर सामाजिक वाद शुरू हो जाएगा।
जर्मनी के अंदर किताब छापने का उद्योग फल फूल रहा है। अधिकतर किताबे जो जर्मनी की बुकस्टोर में पाई जाती है वह या तो जर्मन भाषा में होती हे या जर्मन भाषा में अनुवादित होती है।
जर्मनी के अंदर तकनीकी और वैज्ञानिक शोध पर होने वाले विचार-विमर्श जर्मन भाषा में ही होते है। उदाहरण के तौर पर कोविद-19 महामारी के दौरान कई चिकित्सक और वैज्ञानिको ने आकर सामाजिक वार्ता जर्मन भाषा में ही की थी।
भारत के अंदर ऐसा विद्वान समाज तो अंग्रेजी भाषा के अंदर भी नहीं है। उस देश के लिए जिसमें एक काफी बड़ी मात्रा में तकनीकी मैनपावर उपलब्ध है उनके लिये यह चोकाने वाला है। मूलभूत करण जिसकी वजह से यह समाज विज्ञान से इतना दूर हे वह भाषायी बाधा हे।
इसे ठीक करने में समय लगेगा।
लेखक अपने विद्यार्थियों को तकनीकी के नैतिक और सामाजिक पर लिखने के लिए प्रेरित करते हैं जैसे कि बेचोलर्स डिग्री के विद्यार्थियों से face recognition, bots on social media, alternative reality games लेख लिखवाए। ऐसे लेखों से सामाजिक वाद में वर्द्धि होती हे।
Level-4 सृजन సృజన (Creativity):

जब समाज तकनीकी और वैज्ञान के ज्ञान के बारे मे अपनी मातृभाषा में जानने लगेंगें उस वक़्त कलात्मक और उद्योगिक संस्कृति में भी सृजनात्मकता बढ़ने लग जाएगी। कई वैचारिक और धाराओं से विद्वान आकर साथ में काम करने लगेंगे।
लेखक का क्षेत्र जो कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और वर्चुअल रियलिटी हे उसमे उद्योगिक कलाकृतियों होंगी नई मशीने, संस्थानत्मक बदलाव और मेडिकल डियागोनिस्टिक्स होंगे। इसी तरह से नई संस्कृतिक कलाकृतिया बनेंगी जब नए कलाकारों द्वारा इनका इस्तेमाल किया जाएगा।
अकादमी के अंदर अंतर-शैक्षणिक संस्थानों में संयोग बढ़ाने के काम में भारत का काम काफी ज्यादा नाकाम रहा है। उद्योग और अकादमि के बीच में सहयोग भी काफी खराब रहा है। मातृभाषा में पढ़ाई मिलने से यह सभी बाधाएँ दूर की जाती है।
लेखक के अनुभव के अनुसार उनके जो विद्यार्थी स्थानीय उद्योग में औद्योगिक प्रोजेक्ट पर कार्य करते है वह कई सारा तकनीकी ज्ञान लेकर आते हे। लेखक खुद भी कई सारे अलग अलग अंतर शैक्षणिक संस्थानों के साथ मे संयोग करने की कोशिश करते है।
इंटरनेट के इस युग में, शैक्षिक संयोग वैश्विक स्तर पर बिना किसी भौगोलिक बाधाओ के बिना किया जा सकता है। भारत के अंदर मातृभाषा में पढ़ाई के शैक्षणिक संस्थानों को इस बारे में खास ध्यान देने और जरूरी ढाचिय बदलाव का ध्यान रखें।
Level-5 प्रज्ञा ప్రజ్ఞ (wisdom):

पांचवे स्तर पर गहराई से आत्मसात हुई शास्त्रीयता हमें अपने आप से नए सवाल पूछने का मौका मिलेगा जैसे की हम कौन है? हमारा भविष्य क्या है? एक समाज के तौर पर हम कौन है? हमारे प्रकृति के साथ संबंध?..
..ऐसे प्रश्नों से हमारी ज्ञान परंपरा पुनर्जीवित हो उठे गी।
तथ्य यह है कि: कोई भी व्यक्ति या समाज यह मूलभूत सवाल अपनी तरफ से किसी और को पूछने नहीं देंगे। यह हमारे धर्म, अध्यात्म और यहां तक की ये हमारे मूल अस्तित्व से जुड़ी है।
लेकिन अगर हमने अपनी भाषा में आधुनिक शास्त्रीयता नहीं बनाई तो यह मूलभूत सवाल किसी ओर के द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
लेखक मानव समाज की क्रमागत उन्नति में भारत की भूमिका के लिए आशावादी है। लेकिन लेखक को १००% ऐसा लगता हैं कि जब तक भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिकता उच्च स्तर तक नही पहुंच जाती। जिसमें एक लंबा समय लगेगा।
लेखक को यह विश्वास तो नही है कि इस स्तर तक हम इस पीढ़ी या फिर आने वाली पीढ़ी में पहुंच पाएंगे। लेकिन क्या हमें ऐसा करना चाहिए? बेशक।

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