स्त्री और बुद्धत्व पर स्वघोषित स्त्रीवादियों के आत्ममुग्ध क्रंदन पर क्षुब्ध हूँ। स्त्री बुद्ध क्यों बने? बुद्धत्व में ज्ञान है, केवल। विशुद्ध। न भक्ति है ना प्रेम। न कोई रस है न वश। ओढ़ी हुई सहनशीलता की पराकाष्ठा मात्र है बुद्ध! स्त्री बुद्ध क्यों हो?
गौतम ने प्रेम ठुकराया तब बुद्ध बने।रातों रात अपनी सारी ज़िम्मेवारी को,सोते परिवार-प्रजा को,छोड़ा तब बुद्ध हो पाए।स्त्री शरीर छोड़ सकती है,प्रेम नहीं।त्याग कर सकती है,ज़िम्मेवारी से च्युत नहीं हो सकती।ये प्रकृति नहीं,सदियों की सिद्ध अच्छी आदत है।इसको छोड़ स्त्री उच्छृंखल क्यों हो?
‘बुद्ध होना आसान है’नामक कविताओं में सच है लेकिन एक सच ये भी है कि अपने जीवन में समाज के मापदंडों पर खरी न उतरने वाली बौद्धिक किंतु असुरक्षित स्त्रियाँ या ऐसी स्त्रियों को असुरक्षित महसूस कराने वाले पुरुष इस सच से भी वाक़िफ़ हों कि स्त्रियाँ बुद्ध न होकर भी बुद्धत्व लिए होती हैं।
यक़ीन न हो तो एक बार गेहूँ के खेत से बथुआ तोड़कर आने वाली उन स्त्रियों से पूछिए जो अपने चूल्हानी में बटलोही में चावल मेराती हुई दूसरे ही क्षण अपने बच्चे का मुँह आँचल से पोंछती निर्गुण के कई कवित्त ऐसे ही बोल पड़ती हैं।
इन स्त्रियों के मुँह से फूटते हैं मानस के स्वर और कबीर की पक्तियाँ। लेकिन इन्हें टीले पर या पीपल के नीचे अलग हटकर सबसे मिलने का स्वाँग नहीं रचना होता। स्त्री बुद्ध तो होती ही है और कई कई और ‘त्व’ को समाए होती हैं। गौतम केवल बुद्ध हो सकते हैं। केवल बुद्धत्व पा सकते हैं।
कई त्व को सिद्ध करती और फिर भी स्त्री बनी रहती स्त्रियाँ केवल बुद्ध क्यों हों?

इतिहास द्वारा महान बनाए बुद्ध और महावीर के दायरों में स्त्रियों को बाँध या उनसे तुलना कर हम शक्ति स्वरूपाओं का अपमान ना करें! पुरुष लेखकों और विलायती फ़ेमिनिज़म का दम्भ भरने वाली लेखिकाओं से विनती!🙏
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