1973 में स्वीडन के स्टॉकहोम शहर में एक बैंक डकैती के दौरान डकैतों ने चार लोगों को बंधक बना लिया। बंधकों में तीन महिलाएँ और एक पुरुष थे। उन्हें 6 दिनों तक बंधक बनाए रखा गया और बाद में छुड़ा लिया गया।
लेकिन छूटने के बाद एक अजीब बात दिखाई दी। उन बंधकों ने डकैतों के (1/12)
विरुद्ध गवाही देने से इनकार कर दिया। बंधकों में अपने अपहरणकर्ताओं के प्रति एक सहानुभूति और प्रेमभाव देखा गया। किसी विक्टिम के अपने ऑप्रेसर के प्रति इस व्यवहार को स्टॉकहोम सिंड्रोम कहा जाता है।

यह स्टॉकहोम सिंड्रोम एक अकेली घटना नहीं है। ऐसी बहुत सी घटनाएँ (2/12)
रिकॉर्ड में हैं। 1998 में विएना में एक दस वर्ष की बच्ची नताशा कंप्यूश का स्कूल जाते समय अपहरण कर लिया गया। उसके अपहरणकर्ता ने उसे अपने गेराज के नीचे एक छोटे से तहखाने में 8 साल तक बन्द कर के रखा। वहाँ से वह 2006 में भाग कर बाहर आई।

पर नताशा 8 वर्षों तक हमेशा (3/12)
तहखाने में ही नहीं रही। थोड़े दिनों बाद वह पूरे घर में आराम से घूमने लगी। उसे पड़ोसियों ने गार्डन में टहलते हुए भी देखा। किडनैपर उसे मारता पीटता था, जान से मारने की धमकी देता था, पर उसने उसके लिए किताबें लाकर दीं, और एक रेडियो भी दिया। वह अपने किडनैपर के साथ छुटियाँ (4/12)
मनाने एक स्कीइंग हॉलिडे पर भी गयी।

2006 में एक दिन उसने घर से भाग कर एक बूढ़ी महिला के घर का दरवाजा खटखटाया, जिसने पुलिस को इसकी जानकारी दी। फिर पुलिस ने किडनैपर को पकड़ने के लिए खोज शुरू कर दी। अपना पकड़ा जाना निश्चित देख कर उस किडनैपर ने ट्रेन के आगे कूद कर जान दे दी।
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लेकिन जब किडनैपर के मरने की खबर नताशा तक पहुँची तो वह खूब फूट फूट कर रोई और फिर उसकी कब्र पर कैंडल जलाने भी पहुँची। उसने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि वह बेचारा अच्छा आदमी था। उस लड़की ने बाद में वही घर खरीद लिया जिसमें उसे बंधक बना कर रखा गया था और उसी में रहने लगी क्योंकि (6/12)
उससे उसकी #यादें जुड़ी थीं।

स्टॉकहोम सिंड्रोम सिर्फ व्यक्तियों में ही नहीं, कौमों में भी पाया जाता है। उसे सोशाइटल स्टॉकहोम सिंड्रोम भी कहा गया है।बेचारी नताशा तो सिर्फ 8 वर्षों तक गुलामी में रही थी, और उसकी मानसिकता बदल गयी। हिन्दू समाज ने तो यह उत्पीड़न 800 साल झेला है। (7/12)
पर आप पाएँगे कि हमारे बीच भी जिन कम्युनिटीज ने यह सबसे अधिक झेला है, सेक्युलरिज्म की बीमारी उनके बीच ही सबसे अधिक है। काश्मीर से भागे हिंदुओं को कश्मीरियत याद आती है। पश्चिमी पंजाब से भागे हुए पंजाबियों और ईस्ट बंगाल से आये बंगालियों में भी आपको यह सेक्युलर जमात सबसे (8/12)
सक्रिय दिखाई देती है। केरल में मोपला विद्रोह में लाखों हिंदुओं का कत्ल हुआ, महिलाओं का बलात्कार हुआ...आपको एक भी केरल का हिन्दू इसकी चर्चा करता नहीं दिखेगा कि उसके पूर्वजों के साथ क्या हुआ था।

जिस मनोवैज्ञानिक फेनोमेना को 1973 में स्टॉकहोम सिंड्रोम नाम दिया गया, वह कोई नई (9/12)
घटना नहीं थी। वही घटना मक्का में घटी जब मक्का को फतह किया गया और वहाँ के निवासियों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। जब सीरिया के ईसाइयों और यहूदियों ने उमर के कलहनामे की शर्तें मान कर मुसलमानों की गुलामी में अपमानजनक शर्तों के साथ रहना स्वीकार किया। जब यूरोप शरणार्थियों को (10/12)
अपने देश में रखने के लिए झुका जा रहा है, और लगातार होने वाले आतंकी हमलों के बावजूद इस खतरे की ओर देखने को तैयार नहीं है। या जब हम अपनी कोर्स की किताबों में मुगलों की तारीफ पढ़ते हैं, इस्लामी शासन के अत्याचारों में गंगा-जमुनी तहजीब ढूँढते हैं, या कोई सरदारजी लाहौर की (11/12)
गलियों को एक नोस्टाल्जिया के साथ याद करते हैं, जिन गलियों में उनके पिता का कत्ल और माँ और बुआ का बलात्कार हुआ था।

धिम्मा की शर्त है कि आप अपने गुलामी के स्टेटस को बिना किसी शिकवे शिकायत के स्वीकार करेंगे... और यह धिम्मिपना ही स्टॉकहोम सिंड्रोम है। (12/12)
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