जिनसेनाचार्य:
जिनसेनाचार्य जैन परम्परा के एक प्रमुख आचार्य हुए, आचार्य जिनसेन (द्वितीय), आचार्य नेमिचंद्र शास्त्री की ऐतिहासिक कृति ‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’ के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थे। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है।
यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभा और अपार कल्पना-शक्ति की महिमा से ‘भगवत् जिनसेनाचार्य’ कहे जाते थे। यह मूलग्रंथों के साथ ही टीका ग्रंथों के भी रचयिता थे। इनके द्वारा रचित चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-जयधवला टीका का शेष भाग, ‘आदिपुराण’ या ‘महापुराण’, ‘पार्श्वाभ्युदय’ और ‘वर्धमान पुराण’।
इनमें ‘वर्धमान पुराण’ या ‘वर्धमान चरित’ उपलब्ध नहीं है।
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं-नवीं शती में वर्तमान थे और राष्ट्रकूट-नरेश जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५ से ८७७ ई.) के समकालीन थे।
यह काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार, आचारशास्त्र, कर्म सिद्धांत प्रभृति अनेक विषयों में बहुश्रुत विद्वान थे। यह अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे। जैन सिद्धांत के प्रख्यात ग्रंथ ‘षट्खंडागम’ तथा ‘कसायपाहुड’ के टीकाकार आचार्य वीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई.) इनके गुरु थे।
जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ के संदर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्योंकि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी पहनी ही नहीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली।
एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कवि राजा अमोघवर्ष की सभा में आया और उसने स्वरचित ‘मेघदूत’ नामक काव्य को अनेक राजाओं के बीच, बड़े गर्व से, उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए सुनाया। तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीथ्र्य आचार्य विनयसेन के आग्रहवश उक्त कवि कालिदास के गर्व-शमन के
उद्देश्य से सभा के समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन पड़ा है। इस बात पर कालिदास बहुत रुष्ट हुआ और जिनसेन से कहा-‘यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति।’ इस पर जिनसेन ने कहा-‘ऐसी काव्यकृति तो
मैं लिख चुुका हूँ, किन्तु है वह यहाँ से दूर किसी दूसरे नगर में। यदि आठ दिनों की अवधि मिले तो उसे यहाँ लाकर सुना सकता हूूँ।

आचार्य जिनसेन को राज्यसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि दी गई और उन्होंने इसी बीच तीर्थंकर पापार्श्वथ की कथा के आधार पर ‘मेघदूत’ की पंक्तियों से आवेष्टित करके
‘पार्श्वाभ्युदय’ जैसी महार्घ काव्य रचना कर डाली और उसे सभा के समक्ष उपस्थित कर कवि कालिदास को परास्त कर दिया।
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