थ्रेड: #बैंकर_का_न्यू_ईयर

आज फिर एक "मेरे पैसे से तुमको सैलरी मिलती है" वाले कस्टमर से सामना हुआ। शायद काफी समय से प्लान बना के बैठा था कि किस तरह बैंक वालों का नया साल बर्बाद करना है। पता नहीं पिछले दो हफ्ते से कौनसी मौत पड़ी है, छोटी सी ब्रांच में भी जबरदस्त भीड़ चढ़ी हुई है।
और ज्यादातर कस्टमर ज़लालत वाले। गौर करने पर समझ आया कि ये पूरी की पूरी भीड़ सरकारी है। हर व्यक्ति किसी न किसी खैराती सरकारी स्कीम की मेहरबानी से बैंक में धरा हुआ है। महिला गर्भवती है, खाता खुलवाना पड़ेगा, छः हजार जो मिलेंगे। अब नवां महीना चल रहा है तो मैडम तो बैंक आ नहीं सकती।
और बैंक बिना कस्टमर के आये खाता खोलेगा नहीं। तो होगा क्या? उनके पतिदेव अपने पूरे खानदान को लेकर बैंक आएंगे और हल्ला मचाएंगे। मनरेगा का पैसा, वृद्धावस्था पेंशन, स्कूल की स्कालरशिप सब खातों में ही आएगी।
दो-दो हजार वाली स्कीम ने तो चरस बो ही रखी थी, कोरोना की मेहरबानी से मिड डे मील का पैसा भी अब बच्चों के खातों में जाएगा। एक बच्चे के एक टाइम के खाने का चार रूपये छियानवे पैसे (अब ये तो सरकार ही जाने कि इतने पैसे में कौनसा खाना आता है)।
हर महीने के लगभग एक सौ तीस रूपये। और उस एक सौ तीस रूपये के चक्कर में लड़के की माँ, उसका बाप, चाचा, दादा, नाना सब रोज तीन बार बैंक के दर्शन करने आते है। पैसा नहीं आये तो बैंक में कलेश करते हैं। "मेरी पड़ोसन खाय दही, मुझ से कैसे जाय सही" वाली कहावत बैंक में खूब चरितार्थ होती है।
अगर मेरे पड़ोसन के खाते में सरकारी खैरात आयी, और मेरे खाते में नहीं आयी, तो मेरा पहला काम होता है बैंक में जाके हल्ला करना। अगर बैंक में जाके बैंक वाले से उसकी सैलरी का हिसाब नहीं माँगा तो मेरा इस धरा पे जन्म लेना ही निरर्थक है।
क्या पता इस पाप के बदले ब्रह्माजी अगले जन्म में मुझे कौनसी योनि में फेंकेंगे! दुनिया के सारे कानून कस्टमर की भलाई के लिए ही तो बने हैं। बैंक वाले को आप गाली दे लीजिये, जूते बजा दीजिये, गोली मार दीजिये, बैंक वाला आपका कुछ नहीं उखाड़ सकता। कोई औकात नहीं है बैंकर की।
मैनेजमेंट तो पहले ही लंबलेट था, अब यूनियन भी सड़ चुके हैं। दोनों जगह बैठे हैं महाज्ञानी लोग। इनके पास आप कोई शिकायत लेके जाइये ये आपको एक सौ सत्ताईस कानून गिना देंगे जिनके हिसाब से आप गलत हैं। और सच्चाई भी यही है। बैंकों में हजारों नियम कायदे हैं।
और आप से ये उम्मीद भी की जाती हैं कि आपको ये सब कानून पता होने चाहिए। वो अलग बात हैं कि ये सब जानने के लिए समय चाहिए, और वो आपको ये लोग देंगे नहीं। ये वही लोग हैं जिन्होंने तब ब्रांच चलायी थी जब कस्टमर आधे थे और स्टाफ डबल। इसीलिए तो पढ़ पढ़ के घाघ हो गए हैं।
आप जब भी इनके पास जायेंगे ये आपको भागवत की कथा की तरह सर्कुलर बांचते हुए ही मिलेंगे। इनके पास जाते ही आपको तुच्छ सा महसूस होने लगता है। ये शायद नए लड़कों को दबा कर रखने की इनकी चाल है। काम के बोझ से इतना दबा दो कि पढ़ने लिखने के लिए टाइम ही न निकाल पाएं।
आजकल तो ट्रेनिंग भी बंद हो गयीहै। हवा में ब्रांच चल रहीहै।नया ब्रांच मैनेजर बेचारा टेम्पेरोरी स्टाफ से पूछ पूछ कर ब्रांच चला रहा है। कैश में बैठे नए लड़के को पता ही नहीं कि अगर कोई लीचड़ कस्टमर पूरे गांव से कमीशन पे जमा किये 10 के एक हजार सिक्के लेकर माथे पर चढ़ आये तो क्या करें।
मना करें तो कैसे और जमा करें तो कैसे? मना करने के लिए जरूरी नियम नहीं पता और गिनने के लिए स्टाफ है नहीं। आज बैंकों कि हालत बेहद खराब है। ऊपर से लेकर नीचे तक। ऊपर से सरकार दबा रही है और नीचे से कस्टमर।
और इस बर्बादी के लिए अगर सबसे ज्यादा कोई जिम्मेदार है तो वो है बैंकों के पुराने लोग। वो चाहे प्रमोशन लेकर मैनेजमेंट में बैठे हों या पॉलिटिक्स करके यूनियन में।
नए साल के पहले दिन जब पूरे दिन ऐसी-तैसी करा कर, ऊपर नीचे सब तरफ से गालियां सुन कर घर पहुंचकर भी मेरे दिमाग में "मेरे पैसे से तुमको सैलरी मिलती है" वाला कस्टमर ही घूम रहा था। शाम को मोबाइल खोला तो व्हाट्सप्प पे न्यू ईयर की बधाइयों के मैसेज भरे पड़े थे।
ज्यादातर उन्हीं ऊपर बैठे घाघ लोगों के थे। देखकर मन घृणा से भर गया। अंदर से बद्दुआ निकली, भाड़ में जाओ तुम सब और भाड़ में गया तुम्हारा न्यू ईयर।
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