Upanayana must be conducted as per the grihya sutra of vatu's swashakha. It'd be an individual event and it must not be a joint or community event. Unfortunately, now a days,such community upanayanas're being conducted which are not as per scriptures. Thread throws light on it.
Astika Dwijas must stop Saamuhika Upanayana (Upanayana of many Vatus at a time)
सामूहिक/जुड़वा(एक साथ दो बटुकों का) उपनयन महान् दोष उत्पन्न करने वाला पापयुक्त कृत्य है।इससे बचें।धर्मप्रचार के नाम पर सामूहिक उपनयन नामक महान् पाप धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों द्वारा कर दिया जा रहा है।
सामूहिक/जुड़वा(एक साथ दो बटुकों का) उपनयन महान् दोष उत्पन्न करने वाला पापयुक्त कृत्य है।इससे बचें।धर्मप्रचार के नाम पर सामूहिक उपनयन नामक महान् पाप धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों द्वारा कर दिया जा रहा है।
इसके अतिरिक्त दो बटुकों का/ भाइयों का साथ-2 उपनयन भी पैसा बचाने के लिये कर दिया जाता है, जिससे एक तो समुचित संस्कार नहीं पड़ पाते और दूसरे वटुक व्रात्य बनकर द्विजत्व की पात्रता से रहित हो जाते हैं।
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वसिष्ठ धर्मसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-
श्रद्दधानस्य भाेक्तव्यं चाेरस्यापि विशेषतः ।
न त्वेव बहुयाज्यस्य यश् चाेपनयते बहून् ।।वासिष्ठधर्मसूत्रे १४/१७।।
श्रद्दधानस्य भाेक्तव्यं चाेरस्यापि विशेषतः ।
न त्वेव बहुयाज्यस्य यश् चाेपनयते बहून् ।।वासिष्ठधर्मसूत्रे १४/१७।।
गृह्यसूत्रोक्त उपनयनसूत्र,समिदाधानसूत्र व भिक्षादि का अनुशीलन करने पर उपनयन एकल कृत्य सिद्ध है।
जिस वटु का उपनयन सामूहिक हुआ वह व्रात्यदोष,मण्डपादि से सम्बन्धित स्थानदोष, अयाज्ययाजनदोष,शाखारण्डदोष आदि से ग्रस्त होकर नितान्त ही कष्ट में पड़ता है व उसका उपनयन ही व्यर्थ हो जाता है।
जिस वटु का उपनयन सामूहिक हुआ वह व्रात्यदोष,मण्डपादि से सम्बन्धित स्थानदोष, अयाज्ययाजनदोष,शाखारण्डदोष आदि से ग्रस्त होकर नितान्त ही कष्ट में पड़ता है व उसका उपनयन ही व्यर्थ हो जाता है।
यदि 16 वर्ष की उपरिसीमा बीत गयी तब तो वह पतितसावित्रिक भी हो जाता है जबकि वह तो (व्यर्थ)सूत्र धारण कर रहा होता है।
एक दिन में एक ही समय में एक ही अग्नि में एक ही आचार्य के द्वारा एक ही शाखा से कैसे उपनयन होगा?
ऐसा नहीं हो पायेगा क्योंकि प्रत्येक वटु एक ही वेदशाखा के नहीं होंगे।
एक दिन में एक ही समय में एक ही अग्नि में एक ही आचार्य के द्वारा एक ही शाखा से कैसे उपनयन होगा?
ऐसा नहीं हो पायेगा क्योंकि प्रत्येक वटु एक ही वेदशाखा के नहीं होंगे।
प्रत्येक वटु को पृथक् पृथक् समुद्भवनाम की अग्नि का परिसमूहन करके उसमें स्वशाखोक्त विधि से समिदाधान करना होगा। प्रत्येक वटु के पूर्व संस्कार लोपादि पृथक्-2 होने से प्रत्येक के लिये पूर्व संस्कार लोपार्थ प्रायश्चित्त अलग-2 होंगे। प्रत्येक के लिये आयु, गुरुबल इत्यादि अलग-2 होंगे।
इसमें से किसी भी विषय का सामूहिक उपनयन में विचार नहीं किया जाता है अपितु किसी एक आचार्य द्वारा ही माइक में मन्त्र बोलवा-2 कर एक ही अग्नि में विभिन्न दोषों से युक्त आयुसीमा को पार करके व्रात्यादि दोषों से ओतप्रोत लोगों का बिना प्रायश्चित्त के उपनयन करने का दिखावा कर दिया जाता है।
उपनयनादि के पूर्व वटु के पिता आदि द्वारा नान्दीश्राद्ध करना होता है। प्रत्येक वटु के लिये पूर्वजों के जीवित होने की स्थिति अलग-2 होती है। यह क्रिया सामूहिक/जुड़वा उपनयन में नहीं हो सकती है।
एक मण्डप में ही मङ्गलकृत्य करने पर विनाश होता है। ऐसा महर्षि कात्यायन का वचन है।
अभेदे तु विनाशः स्यान्न कुर्यादेकमण्डपे।।
ज्योतिर्निबन्धे कात्यायनः।।
दो शुभ कार्य एक ही घर में एक साथ करना अशुभ हैं। परन्तु आवश्यक हो तो नौ दिनों के अन्तर के बाद उचित मुर्हूत में करना चाहिये।
अभेदे तु विनाशः स्यान्न कुर्यादेकमण्डपे।।
ज्योतिर्निबन्धे कात्यायनः।।
दो शुभ कार्य एक ही घर में एक साथ करना अशुभ हैं। परन्तु आवश्यक हो तो नौ दिनों के अन्तर के बाद उचित मुर्हूत में करना चाहिये।
यदि बहुत आवश्यक हो तो निम्नलिखित विचार करना चाहिये-
1)प्रत्येक वटुक की आयु का विचार करके जो पतितसावित्रिक न हों,उनका उपनयन कराया जाये व जो पतितसावित्रिक हो गये हैं,उनसे योग्य प्रायश्चित करा लेने के बाद प्रत्येक वटु के लिये वटु की स्वशाखा वाला विद्याविनयसम्पन्न ब्राह्मण आचार्य हो।
1)प्रत्येक वटुक की आयु का विचार करके जो पतितसावित्रिक न हों,उनका उपनयन कराया जाये व जो पतितसावित्रिक हो गये हैं,उनसे योग्य प्रायश्चित करा लेने के बाद प्रत्येक वटु के लिये वटु की स्वशाखा वाला विद्याविनयसम्पन्न ब्राह्मण आचार्य हो।
प्रत्येक के लिये अलग-2 ब्रह्मादि ऋत्विज् हों। प्रत्येक वटु का उपनयन उसकी अपनी शाखा की सूत्रोक्तविधा से हो।
2) प्रत्येक के लिये अलग मण्डप हो और दो मण्डपों के बीच कम से कम आठ हाथ का अन्तर हो।
2) प्रत्येक के लिये अलग मण्डप हो और दो मण्डपों के बीच कम से कम आठ हाथ का अन्तर हो।
3) प्रत्येक वटु के लिये पृथक् अग्नि, उसका परिसमूहन करने और आधान करने की व्यवस्था हो।
4) प्रत्येक वटु के लिये पूर्व संस्कार-लोप का विचार करके पृथक्-2 प्रायश्चित्त का ध्यान रखा जाये।
4) प्रत्येक वटु के लिये पूर्व संस्कार-लोप का विचार करके पृथक्-2 प्रायश्चित्त का ध्यान रखा जाये।
5) प्रत्येक वटु के आचार्य के लिये पृथक् दक्षिणा हो और वटुओं को दान देने वाले यथासम्भव पृथक्-2 हों और भोजन करने वाले ब्राह्मण भी पृथक्-2 हों।
इस प्रकार का 100 वटुओं का सामूहिक उपनयन 100 एकल उपनयनों जैसा ही हुआ।
इस प्रकार का 100 वटुओं का सामूहिक उपनयन 100 एकल उपनयनों जैसा ही हुआ।
अतः कृपया सामूहिक और जुड़वा उपनयनों के दिखावे से बचें और शास्त्रोक्त स्वशाखोक्त पद्धति से समय से अपने पुत्रों का उपनयन कराकर धर्म की रक्षा में सहयोग दें।
शास्त्रसम्मत धर्म में श्रद्धा रखने वाले कहीं दुष्प्रचार में न फँसकर अपने पुत्रों को पापकूप में न फेंक दें, उनके ज्ञान के लिये और विवेक के लिये यह पोष्ट लिखी गयी है।