आज मन में विचार आया कि किस तरह हमारी संस्कृति को, समाज को एक बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से तोड़ा गया। किस तरह हमें हमारी ही समृद्ध संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। आज जब समय के साथ पर उसी संस्कृति के रीति रिवाज को विज्ञान की कसौटी पर एक दम सही और तार्किक पाया जा रहा है तो समझ में
आता है कि पिछले 100-150 सालों से हमने क्या खोया है। इसी तरह हमारे समाज को भी पुश्तैनी काम धंदे के आधार पर जातीयों में बांट दिया गया। कहा गया कि सनातन(हिन्दू) धर्म में यह कुरीति हैं। जबकि सच्चाई यह है कि जो जातियों के नाम दिए गए वे तो हमारे शब्दकोश में है ही नहीं। उन्हीं विकृत
नाम के साथ उन सभी कर्मों को नीचा दिखाया गया। जिस कर्म को हमारे धर्म में पूजा, कला कहा गया है उसी कर्म को शर्म का कारण बन दिया गया। हमारे यहां समाज मैं हर वर्ग को विशेष कार्य दिया गया जिससे समय के साथ वो व्यक्ति उस कार्य में पारंगत हो जाये। हमारे यहाँ "स्वर्णकार", "लोहकार",
"चर्मकार", "शिल्पकार" आदि थे। यानी स्वर्ण को आकार देने वाला , लोहे को आकार देने वाला, चर्म को आकार देने वाला, शिला को आकार देने वाला। अंग्रेजों द्वारा दी गयी विकृत मानसिकता की वजह से हम "उद्यमी" से "नौकर" बन गए। जो काम धंधे हमने छोड़े वो दूसरे धर्म के लोगों ने कब्ज़ा लिये।