आज दूध पर एक ट्वीट प्रश्न के उत्तर में एक प्रति प्रश्नों की श्रृंखला चली तो अंततः इस धागे स विस्तार संकलित करने का प्रयास:
दूध का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, सदियों से ये जीवन का अंग है, अभी भी चल रहा है। उसके प्रयोग की मात्रा और रूप में जो परिवर्तन आये हैं +
उनमें से अधिकतर दूषित हैं। मेरी भी भ्रांतियाँ थीं दूध को लेकर। अब नहीं है, आपके साथ साझा कर रही हूँ।
दूध 8 +1 प्रकार का होता है जिन्हें मानव उपयोग करता है/कर सकता है, इनमें से आठ पशु के और 1 मनुष्य मादा का
बकरी, गाय, भैंस, भेड़, ऊँटनी, घोड़ी, गधी, हथिनी और स्त्री।
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इसमें से अंतिम पाँच के दूध का उपयोग विशेष औषधि बनाने में होता है।
हाँ, आजकल जो हम पैकेट वाला कोई भी दूध लेते हैं उसमें बड़ी मात्रा में भेड़ का दूध मिला होता है। (बहुफ गर्व हैं सबको अमूल पर, आज के अमूल के अंदर की सच्चाई ज़रा खोजियेगा)
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1) माँ का दूध तो बच्चे के लिए होता है तो पशु मादा का दूध लेना पशु हिंसा है/ उसके बच्चे का हक मारना है इसलिए अनैतिक है/ माँस खाने के समान ही है।
उ: पशु सृष्टि और मानव सृष्टि अलग है।
पशु सृष्टि के सिद्धांत मनुष्य सृष्टि पर लागू नहीं हैं। पशु के पास दूसरे दूध का चारा नहीं है,
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वो दूध नहीं पीता और बौद्धिक स्तर पर आगे नहीं गया तो हम उसका अनुकरण नहीं कर सकते। क्योंकि वह तो।केवल हरि वनस्पति खाता है तो हमें औषधि चूर्ण भी नहीं लेना चाहिए। पशु तो घी भी नहीं खाता, वो तो रोटी चावल भी नहीं पकाता, कपड़े भी नहीं पहनता, ज़मीन पर सोता है, दांत नहीं साफ करता, +
स्नान नहीं करता। वो नहीं करता तो चलता है पर मनुष्य ये सब करेगा तो से बहुत रोग हो जाएंगे। मनुष्य की रचना के अनुसार उसे दाँत साफ करने होंगे नहीं तो कीड़े लग जाएँगे, दाँत सड़ जाएंगे। ऐसे ही मनुष्य के सिद्धांत पशुओं पर लागू नहीं होते।
पशु से जितना दूध लेंगे तो उतना उसमें आएगा।
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नहीं लेंगे तो आएगा ही नहीं, उसकी ग्रंथियां सूख जाएँगी। हम हरेक पशु तो नहीं दोहते, फिर केवल गाय भैंस ही क्यों दोहते हैं ? क्योंकि हरेक मादा में ऐसा प्राकृतिक नियम नहीं है कि ज्यादा दूध ही आएगा। गाय-भैंस को अधिक दूध आये उसके लिए आहार है औषधियाँ हैं (प्राकृतिक) क्योंकि
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उन्हें ही प्राकृतिक रूप से आ सकता है।
गाय भैंस बकरी से दूध नहीं लिया तो उसे पीड़ा होती है। उसमें (स्त्री में भी) दूध के आधिक्य से तकलीफ होती है। पशु का शिशु और मानव शिशु अलग गति से बढ़ते हैं। उसमें से दुहने का क्रम है। आरम्भ में केवल एक थन से हमें लेना है (तीन शिशु के लिए)
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फिर धीरे धीरे दो पिला देने हैं, दो से लेना हैऔर आगे आगे।पशु का शिशु सबल होता है, पैदा होते ही खड़ा हो जाता है जबकि मनुष्य के शिशु को 10-15 महीने लगते हैं। ऐसे ही पशु बहुत जल्द अन्य आहार वनस्पति चारा खाने योग्य हो जाता है जबकि मनुष्य शिशु नहीं।
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2)दूध कितनी मात्रा में पीना होता है/चाहिये?
उ उसकी मात्रा अंजुलि प्रमाण होती है।आधुनिक मापक में 50ml-100ml(लगभग 1 कप) एक पूरे दिन में दूध पीने की मात्रा है। इससे अधिक मात्रा का अजीर्ण हो सकता है।इसका उल्लेख सुश्रुत संहिता, वाग्भट्ट अष्टांग हृदय के मात्रा शीतीय अध्याय में दिया है+
अजीर्ण यानि भोजन का खाये हुए का न पचना, क्योंकि दूध गुरु है और शीत वीर्य है। उसे पचाने में बहुत सारे enzymes चाहिये, जो अधिक मात्रा में यहाँ प्रयोग होंगे फो अन्य जगह के लिये कम पड़ेंगे तो अजीर्ण होगा।
अजीर्ण हमारे आजकल के अधिकतर रोगों का कारण है।
सबसे बड़ा मधुमेह diabetes और
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अन्य वायु जनित रोग जैसे जोड़ों का दर्द आदि क्योंकि अजीर्ण वायु को दूषित करता है।
12 वर्ष (कुमारावस्था) की आयु के बाद यही प्रमाण पर्याप्त है। अब सोच के देखिए के आपके परिवार में औसतन कितना दूध अधिक पिया जाता है।
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फिर उस अधिक दूध की माँग पूरी करने के लिये बाजार में अधिक दूध चाहिये,इसी चक्र में पशुओं का मशीनों से दूध निकाला जाता है, उसके शिशु को पर्याप्त न देकर बेचने के लिये अधिक निकाला जाता है।
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3)क्या वयस्क को दूध पीना ज़रूरी है/अनिवार्य रूप से पीना चाहिये?
उ: नहीं। जिस तरह का पोषण दूध से मिलता है, वही पोषण अन्य पदार्थों से व औषधियों/वनस्पतियोंसे बड़े आराम से मिलता है। सहूलियत के लिये हम इतना और कुछ लेने के बजाय दूध ले लेते हैं और उसे आवश्यक का जामा पहना देते हैं।
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4) कौन सा दूध पीना है, किस अवस्था में और कैसे पीना है?
उ: बकरी का दूध विशेषकर बच्चों के लिएसर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वह ग्राह्य है। शिशु जिनको माँ का दूध किन्ही कारणों से नहीं मिल पाता उन्हें गाय का नहीं बकरी का दूध पिलाना चाहिये। दूसरे नंबर पर गाय का दूध है।
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दुहने के समय सुबह और शाम के कारण दूध के गुण में अंतर होता है। शाम का दोहा दूध हल्का और सुबह दोहा हुआ भारी होता है। बकरी किसी भी समय दोही जा सकती हैं क्यों कि वह सारा दिन चरती है तो सारा दिन दूध बनता है और न लिये जाने पर उसे बहुत तकलीफ होती है।
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ज्वर यानी बुखार में दूध बिल्कुल नहीं लेना है, ऋतु समय यानी periods में दूध नहीं लेना चाहिए। । दूध के पचने के लिए उदर में अग्नि का पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक है, ज्वर के समय व ऋतु के समय पाचक अग्नि अति क्षीर्ण होती है इसलिए बहुत अजीर्ण होगा जिसके लिये उदर में शक्ति नहीं होगी+
भैंस का दूध तीसरे स्थान पर है, वह अति गुरु है, उसमें वसा(fat content) सबसे अधिक होता है। उसका सेवन केवल दुर्बलता के रोगी (जिसका पाचन अच्छा हो) या विशेष रोगों में ही बताया गया है।
दूध में कुछ न डालें तो अच्छा, अधिक से अधिक शक्कर (शहद बिल्कुल नहीं) गरम और शहद का विरोध है।
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45-50 डिग्री से ऊपर शहद हानिकारक और बहुत अजीर्ण करता है। हल्दी के दूध का प्रयोग औषधि के रूप में करें तो अलग बात है अन्यथा नहीं क्योंकि दोनों विरुद्ध वीर्य हैं। लेकिन चोट लगने पर दूध में हल्दी डालकर बिल्कुल नहीं देना चाहिए क्योंकि septic में सबसे ज्यादा role दूध का ही होता है।
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क्योंकि “मैंने सारे जीवन अब तक यही माना है या इस पीढ़ी में घर में यही देखा है तो यही ठीक है”,ये भ्रांति बहुत प्रचलित है। किसी का दोष नहीं क्योंकि हमारे सामने शास्त्रीय तथ्य और भारतीय विज्ञान जैसे आयुर्वेद के बारे में बताने वाले और सही बताने वाले अधिक नहीं हैं।
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ऐसे में यदि कोई बताने आता है तो अपने किसी भी अन्य पर अविश्वास के चलते उस पर राशन पानी लेकर चढ़ जाना और उसे आदेश देने की टोन में उससे प्रश्न पूछना अच्छा संस्कार नहीं लगता। दूसरा, किसी पूर्णतया अपरिचित से ऐसे पूछो जैसे उसने पूछने वाले कि भैंस खोल ली हो तो एक सीमा तक समझ भी आता है+
पर जिससे वार्तालाप करते रहते हो, ट्वीट पढ़ाते-पढ़ते रहते हो, उसकी क्षमता का कुछ तो अनुमान हो जाता होगा फिर भी 'अबे तुम कौन' के तरीके से प्रश्न पूछो तो वह अपने ही व्यक्तित्व के बारे में सबको बताता है।
इति/
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