चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
अर्थार्थी ईश्वर से ही अपने धन/साधन की इच्छा पूरी करना चाहता चाहता है। आर्त ईश्वर से ही अपना दुःख मिटाना चाहता है। जिज्ञासु ईश्वर से ही अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहता है। जब वह ईश्वर के सिवाय कुछ+
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
अर्थार्थी ईश्वर से ही अपने धन/साधन की इच्छा पूरी करना चाहता चाहता है। आर्त ईश्वर से ही अपना दुःख मिटाना चाहता है। जिज्ञासु ईश्वर से ही अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहता है। जब वह ईश्वर के सिवाय कुछ+
नहीं चाहता तब वह ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है।
परा व अपरा दोनों ही ईश्वर की प्रकृति हैं जिसके द्वारा यह जगत धारण किया जाता है।
जीव अपने को “मैं हूँ”, ऐसा मान लेता है। इसमें ‘मैं’ अपरा प्रकृति है और ‘हूँ’ परा प्रकृति है (इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही प्राणियों के उत्पन्न+
परा व अपरा दोनों ही ईश्वर की प्रकृति हैं जिसके द्वारा यह जगत धारण किया जाता है।
जीव अपने को “मैं हूँ”, ऐसा मान लेता है। इसमें ‘मैं’ अपरा प्रकृति है और ‘हूँ’ परा प्रकृति है (इन दोनों प्रकृतियों का संयोग ही प्राणियों के उत्पन्न+
होने का कारण है - एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय )
ऐसे में भक्त ईश्वर को चाहता है। तत्वज्ञानी को तो ब्रह्म का ज्ञान होता है पर भक्त को विज्ञानसहित ज्ञान का अर्थात् समग्र का ज्ञान हो जाता है)
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:। वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले अंतकाल में भी+
ऐसे में भक्त ईश्वर को चाहता है। तत्वज्ञानी को तो ब्रह्म का ज्ञान होता है पर भक्त को विज्ञानसहित ज्ञान का अर्थात् समग्र का ज्ञान हो जाता है)
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:। वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले अंतकाल में भी+
मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
अहंकार से सम्बन्ध विच्छेद होने पर ‘मैं’ का तो अभाव हो जाता है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्तामात्र ‘है’ में परिणत हो जाता है - यह मोक्ष है।
इस तरह भक्ति मोक्ष का मार्ग हुई।
इति/
अहंकार से सम्बन्ध विच्छेद होने पर ‘मैं’ का तो अभाव हो जाता है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्तामात्र ‘है’ में परिणत हो जाता है - यह मोक्ष है।
इस तरह भक्ति मोक्ष का मार्ग हुई।
इति/