थ्रेड: प्राण जाए पर वचन न जाए।

एक बार गांधीजी टैगोर साहब से मिलने शांति निकेतन स्कूल आये थे। लोगों से मिलने जुलने का सिलसिला चल रहा था। एक लड़के ने गांधीजी से ऑटोग्राफ माँगा। जैसा कि अक्सर बड़े लोग करते हैं, गांधीजी ने एक उपदेश लिखा और फिर नीचे हस्ताक्षर कर दिए। https://twitter.com/PSMangat/status/1339888715880001536
उपदेश में लिखा "Never make a promise in haste. Having once made it, fulfill it at the cost of your life." जैसे ही टैगोर साहब ने ये देखा, वे नाराज हो गए। उसी ऑटोग्राफ बुक में उन्होंने नीचे बंगाली में लिखा, "A prisoner forever with a chain of clay."
फिर ये सोच कर कि गांधीजी को शायद बंगाली समझ न आये, नीचे अंग्रेजी में लिखा, "Fling away your promise if is found to be wrong." दोनों ही महान व्यक्तित्व हैं। लकिन दोनों के विचार एक दुसरे से विपरीत थे।
जहां गांधीजी जुबान के लिए जान देने तक की बात करते थे, वहीँ टैगोर वचन को केवल मिट्टी की जंजीर बताते थे। वो अलग बात है की देश का विभाजन नहीं होने देने की अपनी बात पर गांधीजी भी नहीं टिक पाए, लेकिन उस पर चर्चा किसी और दिन। ऐसे विरोधाभास इतिहास में कई जगह देखने को मिलते हैं।
महाराणा प्रताप ने ताउम्र अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की, बल्कि जंगलों में रहके घास की रोटी खाना बेहतर समझा। वहीँ उनके पुत्र अमरसिंह, जिसने अपने पिता को अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं करने का वचन दिया था, ने अपने पिता की मृत्यु के बाद जहांगीर से संधि की और उसके दरबार में हाजिरी लगाई।
थोड़ा और पीछे चलें तो, रघुकुल रीति का पालन करते हुए, अपने पिता का वचन रखने के लिए राम ने चौदह वर्ष का वनवास भोगा, अपने पिता को खोया, पत्नी का वियोग झेला। वहीँ श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अपनी शास्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को तोड़कर, सुदर्शन उठा कर भीष्म को मारने दौड़े थे।
इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब एक व्यक्ति के वचन के चलते पूरे राज्य को कष्ट उठाना पड़ा हो। भीष्म की प्रतिज्ञा की कीमत कौरव वंश ने चार पीढ़ियां खोकर चुकाई। राणा हमीर के वचन (जिसे की हमीर हठ भी कहते हैं) के चलते रणथम्भौर जैसा अभेद्य दुर्ग अलाउद्दीन खिलजी की भेंट चढ़ गया।
चाणक्य ने देश की रक्षा के लिए राज्य, राज्य के लिए गांव, गांव के लिए परिवार, और परिवार के लिए व्यक्ति के बलिदान की अनुमति दी है। अगर इसी क्रम को आगे बढ़ाया जाए तो व्यक्ति की रक्षा के लिए वचन की बलि तो दी ही जा सकती है, फिर देश के भले के लिए एक व्यक्ति की ज़ुबान का क्या ही मूल्य।
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