औसत का गणित
एक प्रसिद्ध गणितज्ञ हुए। गणित की कई किताबें पढ़ी, शोध किया। फिर उन्होने औसत का सिध्दांत प्रतिपादित किया और प्रख्यात हुए। एक दिन अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ वे किसी दूसरे गाँव की ओर जा रहे थे।
एक प्रसिद्ध गणितज्ञ हुए। गणित की कई किताबें पढ़ी, शोध किया। फिर उन्होने औसत का सिध्दांत प्रतिपादित किया और प्रख्यात हुए। एक दिन अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ वे किसी दूसरे गाँव की ओर जा रहे थे।
रास्ते में नदी पड़ी वह अपने परिवार और किताबों को किनारे रख पानी की गहराई मापने नदी में उतर पड़े। कई स्थानों की गहराई मापी और किनारे पर वापस आ गये । दूसरे चक्र में स्वयं की, अपने पत्नी एवं बच्चों की उँचाई नापी एवं आँकड़ों से औसत उँचाई ज्ञात की।
फिर नदी में पानी की गहराई के मापों का माध्य ज्ञात कर औसत गहराई निकाल दोनो औसतों की तुलना की और पाया कि उँचाई का औसत पानी की गहराई के औसत से काफी अधिक है। उन्होने अपनी पत्नी से कहा हमारी औसतन उँचाई नदी की औसतन गहराई से काफी ज्यादा है अत: नदी पार करने में डूबने का कोई खतरा नहीं है
और वे नदी में उतर गये। नदी प्राकृतिक रूप से किनारों पर उथली थी और मध्य की ओर गहरी होती जा रही थी।मध्य में पहुँचते पहुँचते अचानक पीछे से पत्नी ने आवाज लगाई ‘छोटा लड़का डूब रहा है’। गणितज्ञ पलटा। एक पल उसे लगा जैसे सारा जीवन व्यर्थ हो गया है,
इसलिए नहीं कि बच्चा डूब रहा है बल्कि इसलिए कि उसके जीवन भर के शोध पर प्रश्न चिन्ह लग गया था। आघात बड़ा जबरदस्त था, लेकिन उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था अतएव बदहवासी में बच्चे को बचाना छोड़ किनारे की ओर दौड़ा और अपने गणना की जाँच करता हुआ बड़बड़ाने लगा ये हो ही नहीं सकता की
मेरा शोध गलत हो। मुझसे गणना में कहाँ चूक हो गई। लेकिन सत्य तो यही था कि न तो शोध गलत था ना ही गणना गलत थी। यदि कुछ गलत था तो केवल उसका अनुप्रयोग।
जीवन के गणित और किताबी गणित में कोई मेल नहीं है। जीवन में हमेशा दो और दो का जोड़ चार नहीं होता। किताबें, शोध, मनीषियों की बातें,
जीवन के गणित और किताबी गणित में कोई मेल नहीं है। जीवन में हमेशा दो और दो का जोड़ चार नहीं होता। किताबें, शोध, मनीषियों की बातें,
जिंदगी जीने में सहायता कर सकती हैं लेकिन केवल उन्ही के सहारे अगर जिंदगी जीयेंगे तो हालात वही होंगे जो उस बच्चे का मँझधार में हुआ। जिंदगी को किताबों से हटाकर देखा जाना चाहिए। बुध्दिजीविता मानसिक संतुष्टि दे सकती है, अहम को तृप्त कर सकती है लेकिन खाने को दाने, तन ढकने को कपड़े
और सर पर छत नहीं दे सकती। अगर ऐसा होता तो दुनिया में जितनी किताबें है उससे हर गरीब के लिए चार जोड़ी कपड़े सिल गये होते, हर घर में अनाज का भण्डार होता और तो और केवल अखबारों से ही कई मकान बना लिये गये होते।