इस साल नेपाल में काफी कुछ हुआ, चीन से नजदीकी हुई, भारत से रिश्ते खराब हुए और अभी नेपाल में राजशाही और हिन्दू राष्ट्र वापस लाने के लिए प्रदर्शन चल रहे हैं।

निकट इतिहास में क्या हुआ यह सब समझे बिना अभी क्या हो रहा है उसका अर्थ समझना तनिक कठिन होगा

आइए चलते है 32 ट्वीटस के सफर पर
देखते हैं कि आखिर 250 साल से राजशाही में चल रहा देश आखिर कम्युनिस्ट कैसे बना। दुनिया का अकेला हिन्दू राष्ट्र सेक्युलर कैसे बना। यह देखेंगे कि भारत की किन गलतियों की वजह से भाई समान नेपाल हमसे दूर हुआ और यह भी देखेंगे कि यह गलतियां थी या फिर जानबूझ कर किया गया एक प्रोजेक्ट!
14 फरवरी, 1996

इससे ज्यादा विचित्र बात क्या होगी कि प्रेम के दिवस, यानी कि वैलेंटाइन डे के दिन ही नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने नेपाल की राजशाही के खिलाफ अपनी नफरत का सशस्त्र ऐलान कर दिया। यही से राजशाही के सबसे मुश्किल दिनों यानी कि नेपाली सिविल वॉर का आगाज़ हुआ।
35 वर्ष की आयु में माओवादी पार्टी के महासचिव बने "प्रचंड" इस अभियान के नायक थे। सरकार तथा अन्य पार्टी के नेताओ को इनके बारे में कुछ खास पता नही था इसलिए शुरू में उन्होंने ने इसे गंभीरता से नही लिया परंतु इस माओवादी अभियान ने तेज रफ्तार में ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ बैठा ली।
1 जून, 2001

राजकुमार दीपेंद्र शाह ने रहस्यमयी परिस्थितियों में अपने पिता महाराजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह तथा राजपरिवार के अन्य सदस्यों को मौत के घाट उतार कर खुद का जीवन भी समाप्त कर लिया।

महाराजा के भाई ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह बाहर होने के कारण बच गए। उन्होंने राजकाज संभाला।
इधर लगातार बढ़ते माओवादी दवाब और उसको झेलने में सरकार की अक्षमता के कारण नए राजा ने नवंबर 2001 में कुछ महीनों की इमरजेंसी की घोषणा की। भारत में वाजपई सरकार ने भी राजा को अपनी तरफ से समर्थन दिया। ध्यान रहे कि बिना भारत की सहमति के नेपाल में बड़े राजनीतिक फैसले नही हुआ करते थे।
अप्रैल - मई 2004 में भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी, संयोगवश माओवादी आंदोलन इसी समय अपने चरम पे पहुँच गया।

पुलिस स्टेशन पर हमला, बम विस्फोट, राजनैतिक हत्याए आम बात हो गयी। ऊपर से राजा के लिए बुरा यह कि नेपाल की बाकी राजनीतिक पार्टियां भी माओवादियों के करीब जा रही थी
स्थिति बद से बदतर होते देख राजा ने दिसंबर 2004 में इमरजेंसी लगाने का मन बनाया। हमेशा की तरह वह भारत के समर्थन से ही यह कदम उठाना चाहते थे। अपनी कार में बैठ कर राजा एयरपोर्ट की तरफ निकल गए, जहाँ से उन्हें दिल्ली की फ्लाइट पकड़नी थी। तभी मनमोहन सिंह ने फ़ोन कर के असमर्थता जाहिर की।
उन्होंने कहा कि नरसिम्हा राव जी की मृत्यु के कारण वह व्यस्त रहेंगे अतः अभी मुलाकात संभव नही है। तीन दिन बाद भारत मे सुनामी आ गयी जिसकी वजह से MMS ने इस मुलाकात को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

आखिरकार मजबूरी में फरवरी 2005 में नेपाल ने बिना "भारत के सहमति" के एमरजेंसी लगा दी।
भारत की नेपाल पालिसी यह कहती थी कि वह नेपाली शासन के दोनो स्तंभों यानी कि "संवैधानिक राजशाही" तथा "बहुदलीय प्रजातंत्र" का समर्थन करती है, परंतु राजा ने प्रधानमंत्री तथा सरकार को बर्खास्त करते हुए पूरी तरह से शासन अपने कब्जे में ले लिया। राजा के इस कदम से भारत के होश उड़ गए।
राजा ने यह सोच रखा था कि 5 दिन बाद ढाका में होने वाले सार्क देशों के सम्मेलन में वह MMS से मिलकर उन्हें अपनी मजबूरियों से अवगत कराएंगे परंतु MMS ने सम्मेलन में जाने से इनकार कर दिया।

भारत के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जे जे सिंह की प्रस्तावित नेपाल यात्रा भी कैंसिल हो गयी।
भारत ने नेपाल से उच्च स्तर और सम्पर्क के सारे रास्ते बंद कर दिए। राजा को भारी झटका तब लगा जब 22 फरवरी को भारत ने रक्षा सहयोग तथा आपूर्ति बंद करने का निर्णय लिया। भारत के सलाह पर अमेरिका और ब्रिटेन ने भी रक्षा सहयोग तथा आपूर्ति बंद कर के राजा के पैरों के नीचे से जमीन खींच ली।
हथियारों की आपूर्ति बंद होने से नेपाली आर्मी का मनोबल टूटने लगा। "ब्रदर आर्मी" का मनोबल टूटते देख भारतीय सेना ने सरकार पर बहुत दबाव बनाया, पर सरकार टस से मस नहीं हुई। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन ने गैर औपचारिक तरीक़े से नेपाल को हथियार मुहैया कराए।
यहाँ पर जरा ठहर कर एक सवाल यह पूछिये की वाजपई सरकार जाने के एक साल के भीतर नेपाल से भारत का कम्युनिकेशन इतना खराब कैसे हो गया? किन परिस्थितियों में भारत ने नेपाल को चीन से हथियार लेने पर मजबूर किया। MMS किसकी सलाह पर यह निर्णय ले रहे थे और सलाहकार का क्या मकसद था?
एकदम फुल रेट्रो सीन इमेजिन कीजिये, 80 का दशक है, लड़के लोग शायद बच्चन की तरह बड़े बाल रखते होंगे जिसमे कान ढक जाते थे, फैशनेबल लोग बेल बॉटम पैंट पहनते ही होंगे।

JNU का कैंपस है और 3 लड़के साथ बैठ कर नेपाल से एक हिन्दू राजा की राजशाही खत्म करने का ख्वाब देख रहे हैं।
दिन में देखे गए सारे सपने हवा हवाई नही होते हैं। तीन में से एक लड़का बाबूराम भट्टराय वापस अपने देश नेपाल जाता है और प्रचंड के नेतृत्व में 1996 में नेपाल में गृह युद्ध आरंभ करता है।

बाकी दो लड़कों को MMS ने सरकार बनने के बाद नेपाल मामलों के लिए सलाहकार बनाया।
जिनको आईडिया ना हो उनको बता दूं कि वो दो लड़के हैं सीपीआई नेता सीताराम येचुरी और दिवंगत एनसीपी नेता डीपी त्रिपाठी।

यह तीनों मिलकर नेपाल को कम्युनिस्ट बनाने का अपना सपना साकार करते गए और इन दोनों की सलाह पर MMS राजा को कमजोर कर के माओवादियों को मजबूत करते गए।
नेपाल में समय समय पर उठती भारत विरोधी भावनाओं के बावजूद नेपाल की राजशाही अधिकतर प्रो-इंडिया रही। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक रिश्तों के अलावा दोनों देशों में एक कड़ी यह भी थी कि कांची के शंकराचार्य नेपाल के राजगुरु भी थे। किसी भी गतिरोध को वह राजा से संपर्क कर आसानी से सुलझा देते थे।
कमजोर होती राजशाही के बीच 2004 उन्होंने नेपाल जा कर राजा की मदद करने का प्लान बनाया। वह कांची से किसी कार्यक्रम में हैदराबाद आये थे जहाँ से उनका नेपाल जाने का प्लान था। दीवाली के ठीक एक दिन पहले, 11 नवंबर 2004 को उन्हें हैदराबाद से मर्डर के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
10 साल केस चलने के बाद वह निर्दोष साबित तो हुए परंतु इस बीच उन्हें काफी समय जेल में व्यतीत करना पड़ा। काफी न्यूज रिपोर्ट्स के मुताबित उनके ऊपर झूठा केस कर के उन्हें आनन फानन में जेल सिर्फ इस लिए भेजा गया ताकि वे नेपाल में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर के राजा की मदद ना कर सके।
खैर, वापस आते हैं भारत द्वारा हथियार आपूर्ति रोकने पर। कुछ ही दिन बाद, शायद मार्च के शुरुआत में, जकार्ता में एफ्रो-एशियाई सम्मेलन था। राजा ने MMS को उधर ही जैसे तैसी घेर लिया। 45 मिनट बात हुई जिसमें राजा ने अंततः चाइना कार्ड दिखा कर MMS को मना ही लिया, भारत ने आपूर्ति बहाल कर दी।
पर इसके साथ ही येचुरी और उसका गैंग लगातार राजा को कमजोर करने में लगे रहे। 2006 में भारत ने नेपाल के 7 राजनीतिक पार्टियों तथा माओवादियों को दिल्ली आमंत्रित कर के इनका आपस में समझौता कराया। राजा को दबाव में आकर पूरी शक्ति छोड़नी पड़ी और इसके साथ ही राजशाही जाती रही।
राजशाही जाती रही और माओवादियों के हाथ मे एक देश की सत्ता आखिर आ ही गयी। उन्होंने फिर 2006 में ही सीताराम येचूरी, डीपी त्रिपाठी और डी राजा को बुला कर नेपाली संसद में उनका खूब सम्मान किया, उनके लिए तालियाँ बजवाई।

इनके मित्र बाबूराम भट्टराय आगे चल कर नेपाल के प्रधानमंत्री भी बने।
इन भारतीय और नेपाली माओवादियों को तो सत्ता और सम्मान दोनों मिला पर भारत को क्या मिला?

वह एक हिन्दू धर्म की डोर जो कि दोनों भाइयों को जोड़े रहती थी, हमने उसे क्यों काटा। यह जानते हुए भी की बगल का दुश्मन चीन एक कम्युनिस्ट देश है, हमने नेपाल को कम्युनिस्ट बनाने में क्यों मदद की?
हमने क्यों मजबूर किया नेपाल को की वह पाकिस्तान और चीन की तरफ देखे?

UPA-1 की सरकार लेफ्ट पार्टियों पर टिकी हुई थी, मुमकिन है कि उसी सर्मथन के बदले येचुरी को नेपाल मामलों में फ्री हैंड दिया गया हो। बहुत सारे सवालों के जवाब शायद 2008 में हुए चीन और कांग्रेस के MOU में छुपे हो।
2008 में भारत मे लेफ्ट पार्टियों ने सरकार से समर्थन खींच लिया। उधर नेपाली पार्टियों ने भी सत्ता मिलते ही भारत को भाव देना बंद कर दिया। 2008 से 13 तक भारत सरकार ने नेपाल की सुध बुध नही ली और हमारा प्रभाव घटते गया।
2014 में सरकार बनते ही यह चुनौती मोदी सरकार को विरासत में मिली।
अटल बिहारी वाजपेयी के नेपाल दौरे के 17 साल बाद मोदी अगस्त 2014 में नेपाल जाने वाले अगले प्रधानमंत्री बने। उन्होंने ठंढे पड़े संबंधों में गर्मजोशी लाने की कोशिश की। भारत को झटका तब लगा जब नेपाल ने 2015 में बिना भारत से परामर्श किये अपना नया संविधान पेश कर दिया।
इस नए संविधान में बॉर्डर पर रहने वाले मधेशियों के हितों का ध्यान नहीं रखा गया। भारत ने असंतोष जताया और इस समर्थन का फायदा उठा कर मधेशियो ने भारत और नेपाल के बीच के सारे रोड जाम कर के आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ती रोक दी। इसका इल्ज़ाम भारत पर लगा और नेपाली जनता में बहुत किरकिरी हुई।
लगातार घटते प्रभाव, चीन से बढ़ते लगाव तथा नेपाली जनता के बीच गुडविल के आभाव के बीच मोदी सरकार ने नेपाल में विकास के काफी प्रोजेक्ट शुरू किए ताकि पब्लिक टू पब्लिक रिलेशन बने रहें।
परंतु केपी ओली ने 2020 में चीन के इशारों पर बॉर्डर विवाद खड़ा कर रिश्तों को और क्षति पहुँचाई।
हालाँकि पिछले दो महीनों में हमारे आर्मी चीफ, रॉ चीफ तथा विदेश सचिव ने बैक टू बैक नेपाल दौरा कर के डैमेज कंट्रोल की कोशिश की है। रॉ चीफ ने तो पीएम मोदी के विशेष दूत के तौर पर केपी ओली से मुलाकात की है। इन सभी मुलाकातों के बाद समीकरण थोड़े बदलते नज़र आ रहे है।
अभी नेपाल की जनता सड़क पर उतर के हिन्दुराष्ट्र की पुनर्स्थापना तथा राजशाही के वापसी की मांग कर रही है। इनकी माँग स्वीकार होने की गुंजाइश कम है पर आशा है कि इसी बहाने नेपाली सरकार से वामपंथी प्रभाव जरा कम हो तथा भारत से पुराने धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक संबंध पुनर्स्थापित हो।
अगर बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव्स आदि मोतियों की माला हैं तो नेपाल उस माला का सबसे पिछला हिस्सा "Hook and eye" है जिसके जुड़े बिना माला कभी पूर्ण नही होगी। आशा करते हैं कि कांग्रेस द्वारा चीन को दिए इन गिफ्ट्स को मोदी सरकार अंततः वापस लेने में कामयाब रहे। 😊
Iti | इति
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हमारे मित्र @iVardhmanJain जी ने कुछ महीनों पहले एक छोटा सा थ्रेड बनाकर नेपाल में चल रहे मोदी सरकार के प्रयासों पर एक छोटी सी चर्चा की थी।
आप सब के रेफेरेंस के लिए वह थ्रेड यहाँ संलग्न कर रहा हूँ। यदि रुचि हो तो अवश्य पढ़ें। https://twitter.com/iVardhmanJain/status/1304794656555692032?s=19
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