थ्रेड
Inefficiency and Lethargy

पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी स्वर्गीय श्री T. S. R. Subramanian ने अपनी पुस्तक "India at Turning Point, the Road to Good Governance" में एक किस्से का जिक्र किया है। आप भी सुनिए। सुब्रमनियन साहब रिटायर हो चुके थे और नॉएडा में रहते थे। https://twitter.com/governorswaraj/status/1337294599509868544
चूंकि नए नए दादा बने थे और लड़का अमेरिका में था, इसलिए उनको उससे बात करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय फ़ोन सुविधा (ISD) की जरूरत थी। उस समय मोबाइल का जमाना नहीं आया था। सब काम लैंडलाइन पे ही होता था।
साहब ने BSNL के नजदीकी ऑफिस से संपर्क किया और जरूरी दस्तावेज और राशि जमा करवा दी। लेकिन हफ्ता दस दिन के बाद भी जब ISD सुविधा चालू नहीं हुई तो उन्होंने वापिस कार्यालय में संपर्क किया। तब पता चला की वो एक बहुत जरूरी फीस भरना भूल गए थे, जिसे आम भाषा में 'रिश्वत' भी कहा जाता है।
रकम थी मात्र दस हजार रूपये। रिश्वत मांगने वाले को शायद ये नहीं पता था कि वो किससे रिश्वत मांग रहा है। सुब्रमनियन साहब ने लिखा है कि वे अगर चाहते तो टेलीकॉम सचिव को फ़ोन करके उस छोटे से अधिकारी की खाट खड़ी कर सकते थे।
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि जल्दी काम होने के लिए रिश्वत देना उचित समझा। उन्होंने ये भी लिखा है कि यदि वे अपने "रसूख" का इस्तेमाल करके (बिना रिश्वत दिए) ISD कनेक्शन ले लेते तो हो सकता था कि उनको बाद में 'operational problems' का सामना करना पड़ता।
ऐसे ही एक और किस्से में वे बताते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने 38000 के बिजली बिल (जो कि गलती से आया था) को ठीक करवाने के लिए उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सचिव को फ़ोन लगाया था और एक ही दिन में उनका काम हो गया था। उन्होंने अपने एक और निजी अनुभव का जिक्र किया है।
1970 की बात है। लखनऊ में उत्तरप्रदेश के ऊर्जा सचिव के आवास पर पार्टी चल रही थी कि अचानक बिजली चली गयी। सचिव साहब ने तुरंत इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के चेयरमैन को फ़ोन लगाया और दस मिनट में बिजली आ गयी।
ये बात किसी से छुपी नहीं है कि उत्तरप्रदेश में आज भी, दिन में दस घण्टे बिजली गायब रहना आम बात है। इन तीनों किस्सों में मुझे एक ही चीज समझ आयी। और वो ये कि किस तरह ये पूरा सिस्टम केवल एक खास तबके की सेवा के लिए ही काम करता है।
ये वही तबका है जिसको सोशलिस्ट, डेमोक्रेटिक, रिपब्लिक भारत देश के आम लोगों ने मिलकर देश की आम जनता की उन्नति तथा देश के विकास के लिए अपनी शक्ति दे रखी है। लेकिन ये तबका केवल अपनी ही सेवा कर रहा है। इस तबके में नौकरशाह, नेता, उद्योगपति सब आते हैं।
साहब का एक चेक पास होने में चार दिन लग गए तो उन्होंने पूरे पब्लिक सेक्टर को सफ़ेद हाथी बताकर कटघरे में खड़ा कर दिया और उसकी अर्थी निकलने की पेशकश तक कर दी। उन्हें ये नहीं पता कि RTO में एक NOC लेने के लिए आम आदमी को भरपूर रिश्वत देने के बाद भी तीन महीने से भी ज्यादा लग जाते हैं।
हमारी न्याय व्यवस्था इतनी महान है कि साढ़े तीन करोड़ केस लंबित हैं जिन में से कई तो चालीस साल से भी ज्यादा समय से चल रहे हैं, लेकिन रसूख वालों के केस कि सुनवाई आधी रात को भी हो जाती है। आम आदमी पुलिस में FIR तक नहीं लिखवा सकता। क्या-क्या ख़तम करेंगे साहब?
बैंक तो चलो बेच भी दोगे, न्यायालय, पुलिस, मंत्रालय को भी बेचोगे क्या? क्यूंकि "inefficiency" और "lethargy" तो वहाँ बैंकों से भी ज्यादा है। और इस 'inefficiency and lethargy' की जड़ कहाँ है ये किसी से नहीं छुपा है।
बाकी छोड़िये जब बात MP/MLA की सैलरी की आती है तो एक रेसोलुशन पास करके तुरंत सैलरी भत्ते बढ़वा लिए जाते हैं। शायद इन साहब को नहीं पता बैंकर आज भी 2012 की सैलरी पर काम कर रहे हैं और तीन साल से भी ज्यादा समय से वेतन संशोधन का इंतजार कर रहे हैं।
इन साहब को ये भी नहीं पता होगा कि बैंकों में ज्यादातर ब्रांच आधे या उससे भी कम स्टाफ पे चल रही हैं। ये शायद नहीं जानते कि बैंकों के उच्चाधिकारी, जिनकी नियुक्ति राजनेताओं कि सहमति के बिना नहीं होती है, एक आम बैंकर पर थर्ड पार्टी प्रोडक्ट्स बेचने लिए किस तरह का दबाव बनाते हैं
और उनके चंद रुपयों के कमीशन के लालच के चक्कर में कितने बैंकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। मैं किसी नेता विशेष को जिम्मेदार नहीं ठहराता, मगर ये जो self-sustaining सिस्टम बना हुआ है, जो कि आम जनता कि और से बिलकुल उदासीन और उसकी परेशानियों से बिलकुल अनभिज्ञ है,
इसका बदलना अति आवश्यक हो चुका है। किसी को तो शुरुआत करनी होगी। नहीं तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पूरा देश ही efficiency के नाम पे निजी हाथों में चला जाएगा। ईस्ट इंडिया कंपनी वाली कहानी दोबारा मत दोहराइये।
भूल-चूक लेनी देनी माफ़ कीजियेगा। मेरा उद्देश्य यहां किसी को ठेस पहुँचाना नहीं है। मैं केवल अपना पक्ष रखने आया हूँ।

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