#RealFarmer #किसान_समर्थक_कृषि_कानून

जहां एक तरफ सरकार बोल रही है बिल किसानों के पक्ष में है वहीं कुछ भारत विरोधी तत्व अपनी गंदी राजनीति चमकाने का प्रयास कर रहे हैं।

आइए समझते है किसान की मुख्य समस्या क्या है !
भारत प्राचीन काल से लेकर अब तक कृषि प्रधान देश है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का परचम विश्व में कृषि के कारण ही हुआ था।

भारत के किसान के घर "कुटीर एवं लघु" उद्योग के केंद्र रहे है।

किंतु अंग्रेजी व्यवस्था के षड्यंत्र ने किसान को मजबूर और मजदूर बना दिया।
भारतीय राजनीति ने उन्हें जातियों में बाँटकर उनकी मांग को कुचल दिया।

कृषि का भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग 14% योगदान है लेकिन कृषि भारत के 60% लोगों के निर्वाह का आधार है।

कृषि का योगदान 1960 के दशक में जीडीपी में 53 % रहा है।
कृषि अपने साथ उद्योगों को बढ़ावा देती है। कपास, गन्ना,मसाले कितने उद्योग को गति देता है।

भारतीय कृषि उद्योग बन सकती है किंतु इसमें सरकारों की इच्छाशक्ति में बहुत कमी दिखाई देती है।
आज भी कृषि का बेहतर प्रबंधन करके ,उसमें तकनीकी निवेश के साथ उन्नत बीजों का प्रयोग करके किसान की आय में वृद्धि करके सामाजिक खुशहाली में वृद्धि की जा सकती है।
1991 के उदारीकरण और 1996 में WTO में हस्ताक्षर के साथ सरकारों ने निर्णय कर लिया है कि कृषि क्षेत्र को हतोत्साहित किया जायेगा। "अन्न दाता सुखी भव" की कामना अब दुःखी और हताश स्थिति में छोड़ दिया जा रहा है।
"उत्तम खेती मध्यम बान अधम चाकरी भीख निदान।"

आज उल्टा चल रहा है नौकरी उत्तम बन धन दे रही है
किसान घटिया जीवन जीने पर विवश है। विडम्बना देखिये व्यापारी अपने उत्त्पाद की कीमत कार्टेल बना कर या स्वयं तक करते है ।
समस्या यह है कि इनके द्वारा तय कीमत भी किसानों को नहीं मिल पाती है। किसान औने-पौने अपना उत्पाद बेचने को विवश है।

सरकारें नई घोषणा करती है जो कि 'तृणमूल स्तर शून्य हो जाती है।'
व्यापारी आसानी से कम दर पर बैंक से कर्ज लेता है वही किसान बैंक की परिक्रमा में समय नष्ट करता है और सूदखोर से ऋण लेने के लिए मजबूर हो जाता है।

दूध एक कृषि उत्पाद है जिसकी किस्मत भारत में अमूल्य ने बदल दी।

वही कृषि के अन्य उत्पाद बदहाल है उनका कोई अमूल्य जैसा संगठन नहीं है।
किसान के संगठन सभी राजनैतिक दल के अनुषंगी संगठन है जिसका निर्णय किसान न करके नेता राजधानी से करता है।

सरकार द्वारा जिसप्रकार की सहूलियत उद्योग को दी जाती है उस तरह किसान को नहीं मिलती है।
सरकार एक ओर अपने को किसान हितैषी बताती है दूसरी ओर उर्वरक की कीमतों में निरंतर वृद्धि कर रही है।

खाद्यान्न सुरक्षा का आधार किसान है मुफ्त आनाज वितरण किसान के आधार पर किया जा रहा है जिसकी मार भी किसानों पर पड़ रही है।
धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 घोषित है फिर भी किसान 1100 रुपये में धान बेचने पर क्यों विवश है ?

कारण सरकार जानने का प्रयास नहीं करती है।

किसान की खुशहाली के बिना उद्योगों को उन्नत स्तर की ओर नहीं ले जाया जा सकता है।
किसान आत्मनिर्भर बने, आत्महत्या न करें । सरकारें उसे भीख न दे बल्कि तकनीकी निवेश को बढ़ावा दे। साथ ही कृषि ऋण, बीज और उर्वरक सस्ते और आसानी से मिल सके।
कृषि को हतोत्साहित करके उद्योग और सेवा क्षेत्र को कैसे विकसित कर सकते है? जबकि 60% उपभोक्ता पूंजी विहीन है। भारत के अर्थशास्त्री न जाने कैसे इस पर ध्यान नहीं देते है। जब किसान के पास पूँजी होगी तब मार्केट की तरलता में वृद्धि होगी।
किसान पर राजनीति स्वाभाविक है लेकिन उनकी समस्या पर ध्यान क्या आंदोलन होने पर ही किया जायेगा।

किसान के विषय को कैसे भूल जाते है यही कृषि क्षेत्र है जब 2008 कि आर्थिक मंदी विश्व पर छायी तब यह रीढ़ बन कर भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करके विश्व का ध्यान भारत की ओर आकर्षित किया था।
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