मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार, सनातन विशेषताओं की समग्रता का नाम है।
हमारे धर्म का मूलभाव आध्यात्म पर आधारित है। वैदिक विधियाँ उसी की परिक्रमा करती हुईं अपरिचित को आस्तिक, फिर भक्ति और फिर ज्ञान के उपादान तक पहुँचा देती हैं। वहाँ से आगे की यात्रा ज्ञान और विज्ञान दोनों का साक्षात्कार https://twitter.com/pragya_barthwal/status/1329666846975434753
करवाती है।
चूँकि सामान्य जनमानस उस अन्तिम उपादान तक बिरले ही पहुँच पाता है और ये भी कि अनुशासन के अभाव में कोई एक ही विधि, कोई एक ही कारण उसकी जिज्ञासा और रूचि को अनवरत बनाए नहीं रख सकते इसलिये वैदिक रीतियों में आगे विस्तार करते हुए उसे पुराणों और उनकी कथाओं से बाँधना आवश्यक था।
अधिकाँश पुराणों की रचना वेदों से तो बहुत बाद के समय में हुई है। जैसे आध्यात्मिक साधना करने से पहले एक धार्मिक आधार का होना सहायक होता है वैसे ही वेदों के अध्ययन से पहले पुराणों को पढ़ना सहायक हो सकता है।
व्रत-उपवासों में कही सुनी जाने वाली कथाएं बहुत बाद में लिखी गई हैं लेकिन..
ऐसा भी नहीं है कि प्राचीन समय में व्रत-उपवास नहीं किए जाते थे। बस उनकी विधि अलग थी, वे जप, ध्यान साधना, इंद्रियनिग्रह आदि पर केंद्रित होते थे। इसीलिए बड़ी-बड़ी तपस्याएँ वनों में की गईं। वे लोग असाधारण थे, उनकी क्षमतायें असाधारण थीं। हम लोग वैसे नहीं हैं। हमें त्योहार उत्सव..
प्रसन्नता देते हैं इसलिए अच्छे लगते हैं लेकिन अगर बात अगर केवल प्रसन्नता की रही तो भला कब तक आप एक ही काम को करके प्रसन्न रह सकते हैं?
इसी कारण भक्ति के साथ भय का समायोजन किया गया। सामान्य व्यक्ति को यदि भय न हो तो क्या वह किसी भी नियम-कर्म-व्यवस्था का अंग बना रह सकता है?
नहीं!!
प्रभु श्रीराम ने भी यही कहा-

भय बिनु होइ न प्रीति।

और जैसा कि मुझे लगता है पुराणों के बाद ही अधिकाँश कथाओं का प्रचलन हुआ होगा... व्रत कथाओं को इस तरह लिखा गया कि आप उसका महत्व समझें अन्यथा लोगों को ये कहकर कोई भी रीति-परम्परा छोड़ने में कितना समय लगता कि "इससे कुछ नहीं होता"?
मंदिरों के घंटनादों और शंखनादों में जिसे स्थूलरूप में सुन सकते हैं अनन्त निर्वात् सी शान्ति में उसी को सूक्ष्मरूप खोजने की साधना करनी पड़ती है।
बीच के रास्ते उन्हीं व्रत कथाओं से होकर पार करने होंगे। 😊

इति।। 🙏
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