दीपावली हो गयी। इस बार कई वर्षों के बाद अपने घर, मध्यप्रदेश में थे। कोरोना के बाद भी दीवाली खुलकर ही मनाई गई। वास्तव में कोई प्रतिबन्ध नहीं था। @ChouhanShivraj जी को बहुत धन्यवाद।
घर से हम सब जो पिछले छह सात महीनों से बंद से थे, थोडा बहुत बाहर निकले। परिवार इक साथ आया।
बाज़ारों में भी रौनक थी, चीनी सामान दुकानदारों ने कम रखा, और ग्राहकों ने भी कम माँगा, ऐसा कुछ दुकानदार मित्रों ने बताया।
देसी सामान की धूम रही, दिया-गुजरिया खूब बिकी।
नए-पुराने और सोशल मीडिया के मित्रों के साथ शुभकामनायें और शुभकामनाएँ दोनों का लेन-देन खूब हुआ।
परिवार साथ था, बाहर का खाना अब भी ठीक नहीं लगा, सो इस बार गुजिया, नमकीन, मठरी, मिठाई, बूँदी, सेव आदि सब कुछ बनाया गया।
बाकी स्थानों पर भी शायद ऐसा ही हुआ होगा। पटाखे भी जमकर फोड़े गए।दो तीन रॉकेट मिसफायर भी हुए।एक जैन साहब की छत पर बनी खिड़की में से होते हुए उनके घर में घुस गया।
एक रॉकेट ने बोतल में डूब कर जान दे दी।

दीपावली के अगले दिन सुबह सुबह सारा मोहल्ला बाहर खड़ा था। पंडिताइन शिकायत कर थी, चिल्लाना नहीं कहा जा सकता। कोई उसके घर के बाहर पड़े हुए गोबर में आधी रात को सुतली बम फोड़ गया। दीपावली पर पोती गई पूरी दीवार पर गोबर के छींटे थे।
उसे अपने सामने वाले पर शक तो था लेकिन देखा किसने?
दीपावली पर अर्थव्यवस्था भी बहुत कुछ पटरी पर लौटेगी।
यह सब पिछले कई महीनों के मानसिक कष्ट से उबरने में बहुत सहायक होगा।
हमारे बच्चों के दिमाग में बचपन से ही शिक्षा व्यवस्था हमारे त्योहारों के प्रति ग्लानि का भाव भर रही है।पटाखे फोड़ने का आनंद तो आ रहा था लेकिन रह रह कर बच्चे कह ही देते- टीचर ने तो मना किया था, पटाखों से पॉल्युशन होता है। पटाखे नहीं फोड़ने चाहिए और ये देखो हमने कितने सारे फोड़ दिए।
आशा है इस बार जी भर के आतिशबाज़ी करने के बाद उनके मन से ग्लानि कुछ कम होगी और दीपावली का उत्साह बढ़ेगा।
बच्चों के दिमाग में बचपन से ही भर दिया जाता है कि हमारे त्यौहार क्यों नहीं मनाने चाहिए, और फिर बड़े होकर 'विराट' कुंठा का शिकार होते हैं।
बचपन में हम भी पटाखे फोड़ते थे, फिर धीरे धीरे छूट गया। आठवीं कक्षा के बाद बहुत कम, और बारहवीं के बाद बिलकुल नहीं। लेकिन जब से त्यौहारों पर प्रतिबन्ध लगाने शुरू किये गए हैं तब से अपना विरोध व्यक्त करने के लिए पटाखे अवश्य फोड़ते हैं।
NGT जैसी संस्थाओं को आधार बनाकर हिन्दू त्यौहारों को दबाने का भरपूर प्रयास हो रहा है। मंत्रालयों और सरकारी संस्थाओं में 'वोक' लोग घुस चुके हैं। इनके वोकत्व का शिकार केवल हिन्दू हैं। ये तथ्य भी भारी भारी ढूंढ कर लाते हैं।
तरह तरह के वोक, तरह तरह के शोक।
AIR वाले किसी वोक ने कहा पटाखे चलाने से पक्षी अंधे हो जाते हैं। AIR quality वास्तव में खराब चल रही है।
सबसे दुःखद चित्र पटाखों की दुकाने उजाड़ते पुलिसवाले और सर पटक कर रोती हुई बालिका का था। उन्होंने साक्षात लक्ष्मी को रुलाया है। परिणाम वो भुगतेंगे ही।
उन सरकारों का भी कुछ भला नहीं होगा जिन्होंने पहले दुकानदारों को लाइसेंस दिए, फिर जब दुकानदारों ने माल उठा लिया तो प्रतिबन्ध लगा दिया। यह पटाखों के व्यापार को घाटे का और जोखिम भरा बनाने का कुत्सित प्रयास है।
जिसका उत्तर दिल्ली के लोगों ने अच्छे से दिया है।
आने वाले वर्षों में भी हम प्रयास करेंगे कि ये सब मीठे बिना मिठाई, पटाखों बिना दीवाली, पानी बिना होली, स्नेह बिना रक्षाबंधन, कांवड़ बिना सावन का वोकियों का एजेंडा नहीं चलने देंगे।
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