दीवाली पर पटाखे,होली में पानी,राखी में पैत्रिएकी वगैरह जैसे बातें लाने पर गुस्सा नहीं आता अगर ये सब ज्ञान ईद-बकरीद-क्रिसमस वगैरह पर भी बांटा जाता।

आपका एकतरफा रवैया ये साफ करता है कि सिस्टेमेटिक तरीके से कोशिश की जा रही कि आने वाली पीढ़ी को इन त्योहारों का मतलब भी न पता हो।
आप एक तरफ हिन्दू त्योहारों पर बैन लगाते हैं और दूसरी तरफ दूसरे त्योहारों को दुगने उत्साह से बिना किसी ज्ञान के मनाते हैं।
बच्चे कृष्ण बनने से कतराने लगे हैं और खुशी खुशी सेंटा बनने लगे हैं..नये साल में सबके साथ झूमते हैं होली-रामनवमी की बधाई देना पिछड़ापन समझने लगे हैं
जलीकट्टू पर जानवरों की जान की चिंता अचानक बकरीद में खत्म हो जाती है।
जन्माष्टमी में दही-हांडी कार्यक्रम में इंसानों के घायल होने की चिंता आपको अचानक मुहर्रम में या हुसैन के नारे के साथ खुद को कोड़े-ब्लेड मारते लोगों को देख कर खत्म हो जाती है
दीवाली में पटाखों की आवाज से आपके कुत्ते घबराने लगते हैं पर शब-ए-बारात और नए साल के जश्न में वही पटाखे की आवाज सुहाने लगने लगते हैं।
होली में बहने वाला पानी आपको टेंशन देता है पर बकरीद में लाखों जानवरों को मार कर उसका खून साफ करने में खर्च होने वाले पानी से कोई दिक्कत नहीं होती
स्कूलों में कोई कलावा,टिका या कोई और धार्मिक प्रतीक इस्तेमाल कर आ जाये तो इनडिसिप्लिन माना जाता है वहीं छोटे छोटे बच्चों को सेंटा कलौज बन कर आने का टास्क दिया जाता है।

ये दोगलापन नहीं है तो क्या है? ये साजिश नहीं है तो क्या है?
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