शास्त्रों में कलियुग को मलेच्छत्व का पर्यायवाची माना गया है। इसलिये, जैसा कि जयदेव ने अपने दशावतार गीत में लिखा, कलियुग का अंत कल्कि अवतार के द्वारा मलेच्छों के नाश से होगा।
"म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् ।
धूम केतुम् इव किम् अपि करालम्॥
केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे॥"1/
"म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् ।
धूम केतुम् इव किम् अपि करालम्॥
केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे॥"1/
कलियुग के राजाओं का वर्णन करते हुये श्रीमद्भागवत में कहा गया:
"तुल्यकाला इमे राजन् म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः ।"
(परीक्षित! ये सब के सब राजा आचार विचार में मलेच्छप्राय होंगे).
वैसे तो संस्कृत साहित्य में मलेच्छ शब्द बहुत जगह आया है लेकिन सबका निचोड़ यह है कि यह शब्द उस मनोवृत्ति 2/
"तुल्यकाला इमे राजन् म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः ।"
(परीक्षित! ये सब के सब राजा आचार विचार में मलेच्छप्राय होंगे).
वैसे तो संस्कृत साहित्य में मलेच्छ शब्द बहुत जगह आया है लेकिन सबका निचोड़ यह है कि यह शब्द उस मनोवृत्ति 2/
(और उसके अनुसार आचरण एवं व्यवहार) का वाचक है जिसमें अपने शरीर को ही अपनी आत्मा मानकर, धर्म को किनारे करके, भौतिक सुख और भोग के पीछे भागा जाता है। तो जो आर्य है वह शरीर को अपनी आत्मा नही मानता और इसलिये इस शरीर के भोग के लिये धर्म का त्याग नही करता है, बल्कि उल्टा नाना प्रकार 3/
के शारीरिक और मानसिक कष्टों को धर्म के लिये सहता है। जैसाकि भगवान श्रीराम ने सुमंत्रजी से गंगाजी के तटपर कहा था:
"मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥
सिबि दधीच हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥"
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"मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥
सिबि दधीच हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥"
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भावार्थ:श्री रामजी ने मंत्री को उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझाया कि हे तात ! आपने तो धर्म के सभी सिद्धांतों को छान डाला है।शिबि, दधीचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए करोड़ों (अनेकों) कष्ट सहे थे।
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बुद्धिमान राजा रन्तिदेव और बलि बहुत से संकट सहकर भी धर्म को पकड़े रहे (उन्होंने धर्म का परित्याग नहीं किया)।
यह ध्यान रहे कि शास्त्रों में भोग की मनाही नही है जब तक कि वह धर्म के विरुद्ध ना हो।
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यह ध्यान रहे कि शास्त्रों में भोग की मनाही नही है जब तक कि वह धर्म के विरुद्ध ना हो।
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शास्त्रों में यह भी कहा गया कि काल के प्रभाव से (कलियुग आने के कारण) समष्टि में तमोगुण की वृद्धि होने के कारण मलेच्छत्व लोगों के मन बुद्धि में भर जाता है। आर्यत्व का ह्वास हो जाता है। और लोग, यहाँ तक कि ब्राह्मण भी, मलेच्छ स्वभाव वाले हो जाते हैं।
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हिन्दू समाज में सनातन धर्म (आर्यत्व) के आध्यात्मिक स्तर पर (और इसकी सामाजिक अभिव्यक्ति ) इस ह्वास को गोस्वामी तुलसीदास ने आज से लगभग पाँचसौ वर्ष पहले ऐसे लिखा था।
"प्रभुके बचन,बेद-बुध-सम्मत,ऽमम मूरति महिदेवमई हैऽ।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद,लोभ लालची लीलि लई है ॥"
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"प्रभुके बचन,बेद-बुध-सम्मत,ऽमम मूरति महिदेवमई हैऽ।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद,लोभ लालची लीलि लई है ॥"
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भावार्थ: वेद और विद्वानोंकी सम्मति है तथा प्रभुके श्रीमुखके वचन हैं कि ब्राह्मण साक्षात् मेरा ही स्वरूप हैं; पर आज उन ब्राह्मणोंकी बुद्धिको क्रोध,आसक्ति, मोह, मद और लालची लोभने निगल लिया है
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अर्थात् वे अपने स्वाभाविक शम-दमादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी,कामी, क्रोधी, घमंडी और लोभी हो गये हैं॥
राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति,प्रतीति,प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥३॥
भावार्थ: इसी तरह राजसमाज (क्षत्रिय-जाति) करोड़ों कुचालोंसे भर गया है,
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राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति,प्रतीति,प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥३॥
भावार्थ: इसी तरह राजसमाज (क्षत्रिय-जाति) करोड़ों कुचालोंसे भर गया है,
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वे (मनमाने रूपमें लूटमार, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचाररूप) नित्य नयी कुचालें चल रहे हैं और हेतुवाद (नास्तिकता) ने राजनीति, (ईश्वर और शास्त्रपर यथार्थ) विश्वास, प्रेम, धर्मकी और कुलकी मर्यादाका ढूँढ़-ढूँढ़ कर नाश कर दिया है॥
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11/
आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित,पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥
भावार्थ: संसार वर्ण और आश्रम-धर्मसे भलीभाँति विहीन हो गया है। लोक और बेद दोनोंकी मर्यादा चली गयी। न कोई लोकाचार मानता है और न शास्त्रकी आज्ञा ही सुनता है।
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प्रजा पतित,पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥
भावार्थ: संसार वर्ण और आश्रम-धर्मसे भलीभाँति विहीन हो गया है। लोक और बेद दोनोंकी मर्यादा चली गयी। न कोई लोकाचार मानता है और न शास्त्रकी आज्ञा ही सुनता है।
12/
प्रजा अवनत होकर पाखण्ड और पापमें रत हो रही है। सभी अपने-अपने रंगमें रँग रहे हैं, यथेच्छाचारी हो गये हैं।
सांति,सत्य,सुभ,रीति गई घटि,बढ़ी कुरीति,कपट-कलई है।
सीदत साधु,साधुता सोचति,खल बिलसत,हुलसति खलई है॥५॥
भावार्थ: शान्ति, सत्य और सुप्रथाएँ घट गयीं और कुप्रथाएँ बढ़ गयी हैं
13/
सांति,सत्य,सुभ,रीति गई घटि,बढ़ी कुरीति,कपट-कलई है।
सीदत साधु,साधुता सोचति,खल बिलसत,हुलसति खलई है॥५॥
भावार्थ: शान्ति, सत्य और सुप्रथाएँ घट गयीं और कुप्रथाएँ बढ़ गयी हैं
13/
तथा (सभी आचरणोंपर) कपट (दम्भ) की कलई हो गयी है (एवं दुराचार तथा छल-कपटकी बढ़ती हो रही है) । साधुपुरुष कष्ट पाते हैं, साधुता शोकग्रस्त है, दुष्ट मौज कर रहे हैं और दुष्टता आनन्द मना रही है अर्थात् बगुला-भक्ति बढ़ गयी है।
14/
14/
परमारथ स्वारथ,साधन भये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥
भावार्थ: परमार्थ स्वार्थमें परिणत हो गया अर्थात् ज्ञान, भक्ति, परोपकार और धर्मके नामपर लोग धन बटोरने लगे हैं।
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कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥
भावार्थ: परमार्थ स्वार्थमें परिणत हो गया अर्थात् ज्ञान, भक्ति, परोपकार और धर्मके नामपर लोग धन बटोरने लगे हैं।
15/
(विधिपूर्वक न करनेसे ) साधन निष्फल होने लगे हैं और सिद्धियाँ प्राप्त होनी बंद हो गयी हैं, कामधेनुरूपी पृथ्वी कलियुगरूपी गोमर (कसाई) के हाथमें पड़कर ऐसी व्याकुल हो गयी है कि उसमें जो बोया जाता है, वह जमता ही नहीं (जहाँ-तहाँ दुर्भिक्ष पड़ रहे हैं) ।
16/
16/
कलि-करनी बरनिय कहाँ लौं,करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥
भावार्थ: कलियुगकी करनी कहाँतक बखानी जाय? यह बिना कामका काम करता फिरता है। इतनेपर भी दाँत पीस-पीसकर हाथ मल रहा है। न जाने इसके मनमें अभी क्या-क्या हैं?
17/
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥
भावार्थ: कलियुगकी करनी कहाँतक बखानी जाय? यह बिना कामका काम करता फिरता है। इतनेपर भी दाँत पीस-पीसकर हाथ मल रहा है। न जाने इसके मनमें अभी क्या-क्या हैं?
17/
"को जानै चित कहा ठई है"
इस प्रश्न का उत्तर संभवत: गोस्वामी तुलसीदास को ज्ञात नही हो पाया अपने जीवनकाल में लेकिन संभवत: आज हम इस प्रश्न का उत्तर आंशिक रुप से जानते हैं।
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इस प्रश्न का उत्तर संभवत: गोस्वामी तुलसीदास को ज्ञात नही हो पाया अपने जीवनकाल में लेकिन संभवत: आज हम इस प्रश्न का उत्तर आंशिक रुप से जानते हैं।
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कलियुग के मन में काँग्रेस और नेहरु-गाँधी वंश था जिसके द्वारा वह आर्यत्व (सनातान धर्म) की धुरी ब्राह्मण को संपूर्ण रुप से मलेच्छ बनाया जा सके। इस तरह से मलेच्छत्व की पूर्ण प्रतिष्ठा आर्यावर्त भारत में हो सके।
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चाहे बौद्धिक स्तर पर इंडो-युरोपियन आर्यन लोग हों या बाहुबल के स्तर पर विकास दूबे, ये दोनो ही प्रजातियाँ कलियुग के द्वारा आर्यावर्त में मलेच्छत्व की प्रतिष्ठा का ही परिणाम हैं।
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इस तरह से, अगर आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो, सेकुलर-सवर्ण कलियुग के बच्चे हैं और मलेच्छ से ज्यादा खतरनाक हैं क्योकि इनका मलेच्छत्व वर्णाश्रम के मुखौटे से ढँका हुआ है।
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