मैं और मेरा खब़्ती दिमाग सुबह से सोच रहे हैं कि ऐसा न होता तो कैसा होता..?
ऐसा न होता तो क्या होता..?
जैसा भी होता क्या वो हम को हजम होता?

तो आइए संभावनाओं पर चर्चा करें..
पहली संभावना तो यही है कि महाकाल मंदिर में उसे कोई पहचानता ही नहीं.
भोलेनाथ से आशीर्वाद लेकर कहीं और निकल लेता और वहीं से अपना काम चलाता रहता,
अग्रिम जमानत ले लेता, यहाँ वहाँ सौदेबाजी करता।
पुलिस ढूँढ़ती रहती और बाद में कभी पकड़ा जाता जब मामला ठंडा पड़ जाता?
क्या वो न्याय होता?
उस स्थिति में मीडिया रोज सुबह शाम दिनरात सरकार की बखिया उधेड़ता रहता।
तनवीर,पारचा,चोपड़ा जैसे लोग चेहरे पर तिरछी मुस्कान लिए पुलिस का चीरहरण करते रहते बिना नागा,भैया दीदी ट्वीट कर योगी का त्यागपत्र माँगते रहते।
शाम की चाय पर बाबू लोग ठठ्ठे मारते रहते।
क्या वो न्याय हमें हजम होता?
चलिए मान लेते हैं कि वो गिरफ्तार होता और मध्यप्रदेश पुलिस में सत्तारूढ़ दल दूसरा होता?
तो आनन-फानन में महान वकील प्रदूषण या जीरो उच्चतर न्यायालयों में अर्जी लगाते कि उसे उत्तरप्रदेश पुलिस से जान का खतरा है और उसे उसके हवाले न किया जाए..
फिर जो होता क्या वो न्याय होता?
उस स्थिति में मीडिया दिन-रात बारी-बारी से उप्र-मप्र सरकार की बखिया उधेड़ता रहता।
तनवीर,पारचा,चोपड़ा जैसे लोग चेहरे पर तिरछी मुस्कान लिए पुलिस का चीरहरण करते रहते, भैया दीदी ट्वीट कर योगी का त्यागपत्र माँगते रहते।
शाम की चाय पर बाबू लोग ठठ्ठे मारते रहते।
क्या वो न्याय होता?
चलिए मान लेते हैं कि मप्र सरकार ने उसे बिना हील-हुज्जत के उप्र पुलिस के हवाले कर दिया जैसा कि सच में हुआ..
उप्र पुलिस सरकारी शान से दामाद जी को कानपुर लाती क्योंकि मामला वहीं का है..
कल्पना कीजिए उज्जैन-कानपुर
यात्रा की।
कितना मजबूत कलेजा रहा होगा उन STF वालों का जो जानते थे कि उनके साथ उनके आठ साथियों का हत्यारा बैठा है और उन्हें उसे सुरक्षित पहुँचाना है।
सच है कि उनकी ड्यूटी थी,उत्तरदायित्व था लेकिन पुलिस वाले भी इंसान होते हैं।
क्या मनस्थिति रही होगी?
चलिए मान लेते हैं कि सुरक्षित कानपुर पहुँच जाता..
फिर क्या होता?
क्या किसी भी पुलिस स्टेशन में वो सुरक्षित होता?
पुलिस वालों का गुस्सा तो भूल जाइए..उनके हाथ तो बंधे हैं..
एक हिस्ट्रीशीटर जिसके पास अच्छे-अच्छों का कच्चा चिट्ठा था क्या उसके पुराने आसामी उसे जीवित रहने देते?
तो सरकार को उसे 24 घंटे सुरक्षा देनी होती.
अपने संपर्कों के चलते महान वकील पैरवी करते,ईश्वर ना करे कोर्ट आते-जाते कोई उसे मार जाता तो.
फिर योगी का त्यागपत्र माँगा जाता.
पारचा-चोपड़ा-तनवीर जैसे लोग मुख पर मुस्कान लिए सरकार की बखिया उधेड़ते
भैया दीदी ट्वीट करते.
मामला चलता..उसे कोर्ट में पेश किया जाता..
जेल में ही रहता और वहाँ से अपने काले धंधे चलाता, सरकारें बनाता और गिराता..
कानून की किसी बारीकी को लेकर उसे जमानत मिल भी जाती तो वो हरगिज़ ना लेता..
उसके जैसे हाई प्रोफाइल कैदी को जेल जैसी सुरक्षा कहाँ मिलती?

क्या वो न्याय होता?
उस स्थिति में मीडिया दिन-रात बारी-बारी से उप्र सरकार की बखिया उधेड़ता रहता।
तनवीर,पारचा,चोपड़ा जैसे लोग चेहरे पर तिरछी मुस्कान लिए पुलिस का चीरहरण करते रहते, भैया दीदी ट्वीट कर योगी का त्यागपत्र माँगते रहते।
शाम की चाय पर बाबू लोग ठठ्ठे मारते रहते।
क्या वो न्याय होता?
मैं केवल संभावनाओं पर विचार कर रही हूँ..
मुझे नहीं पता कि जो हुआ वो सही था या गलत..या उसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे..
किंतु हर परिस्थिति में मीडिया पर अर्थहीन चिल्ल-पों चलती रहेगी,उसका इसका त्यागपत्र माँगा जाता रहेगा..बारी-बारी से पक्ष विपक्ष का माहौल बनाया जाता रहेगा..
आज की घटना हमें एक बार फिर यह सोचने पर बाध्य करती है कि प्रत्येक विषय पर मीडिया का इस तरह का अतिरेक कितना उचित है?
फिर चाहे मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा का हो या पुलिस कर्मियों की हत्या का..या किसी गबन घोटाले का?
क्या इस तरह कार्यपालिका,तंत्र पर अनावश्यक दबाव बनाना उचित है?
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