🌹सदोष और निर्दोष जीवन 🌹

एक आदमी है जो मनौतियाँ मानता है कि जहाज में बैठ जाऊँगा तो प्रसाद बाँटूगा, नारियल फोड़ूँगा। वह पैसा भी खर्च रहा है और जहाज की यात्रा करने के बाद नारियल भी फोड़ता है, प्रसाद भी बाँटता है, खुशियाँ मनाता है। लेकिन जहाज में नौकरी वाला पायलट तथा दूसरे
मददगार लोग जहाज में बैठते भी हैं, ऊपर से पैसा भी लेते हैं और घड़ी देखते रहते हैं कि कब समय पूरा हो। डयूटी पूरी हुई तो ‘हाश! जान छूटी!’ करके घर पहुँचते हैं क्योंकि वे सुख लेने के लिए जहाज में नहीं बैठते, डयूटी के लिए बैठते हैं। जैसे यात्री सैर करने जाता है, ऐसे पायलट के मन में
सैरबुद्धि नहीं है। साधन में होते हुए भी उसमें सुखबुद्धि नहीं है। ऐसे ही देहरूपी साधन में ब्रह्मवेत्ता भी होगा और अज्ञानी भी होगा, बुद्धू भी होगा और बुद्ध भी होगा लेकिन बुद्धु शरीररूपी साधन में सुखबुद्धि करके जियेगा और बुद्धपुरुष शरीररूपी साधन का उपयोग करने के लिए जियेगा। यात्री
और पायलट दोनों बैठे हैं जहाज में मगर लेकिन एक ड्यूटी कर रहा है और दूसरा सैर करने जा रहा है। ऐसे ही हम लोग इस शरीर में जी रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं तो सैर करने की बुद्धि से जी रहे हैं या किसी के काम आने के लिए जी रहे हैं? अगर किसी के काम आने के लिए जी रहे हैं तो हो गया
निर्दोष जीवन और अगर विलास करने के लिए जी रहे हैं तो हो गया सदोष जीवन।
मनुष्य जन्म में संभावना है। आप जितना महान होना चाहें, जितना ऊँचा उठना चाहें उठ सकते हैं और जितना नीचे गिरना चाहें गिर भी सकते हैं। अपना जीवन ईश्वर के ज्ञान से, ईश्वर की भक्ति से, सेवा से, परोपकार से, निर्दोषता
से जितना भरना चाहें उतना भर सकते हैं और जितना खाली कर डालें उतना खाली हो सकता है। पुण्यकर्म करके ऊँचा उठना यह मनुष्य-जन्म का तप है। पशु पुण्य नहीं कर सकता, पाप मिटा नहीं सकता। मनुष्य कर्म को काट भी सकता है, कर्म बढ़ा भी सकता है।

एहि तन कर फल बिषय न भाई।(श्री रामचरित. उ.कां.43.1)
यह शरीर विषयभोग के लिए नहीं मिला है। यह शरीर मिला है निर्दोष परमात्मा का सुख लेने के लिए, शुद्ध आनंद लेने के लिए। शुद्ध कृत्य करते-करते हृदय शुद्ध होता जाएगा। हृदय जितना शुद्ध होगा उतना शांत रहेगा और जितना शांतस्वरूप परमात्मा के करीब आ जाएगा।
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