शिक्षा : निजी बनाम सरकारी

निजी शैक्षणिक संस्थाओं का प्रमुख उद्देश्य प्रायः व्यवसायिक ही रहता है, कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो इनके लिए शिक्षा तो महज बहाना है । सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में यदि ढंग की पढ़ाई हो भी तो उनका प्रमुख लक्ष्य होता है सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा
को जनसामान्य पर थोपना । दिखावे के लिये कुछ नीतिवाक्य पढ़ा दिए जाते हैं । जबसे विश्वविद्यालओं की स्थापना हुई और शिक्षा में राजधन का प्रवेश हुआ, तब से शिक्षा रसातल को सिधार गयी । नालन्दा और विक्रमशिला के स्नातक अजन्ता की गुफाओं में बैठकर नग्न सुंदरियों की तस्वीरें बनाते थे,
क्या यही था तथागत का धर्म ? नालंदा में दस हज़ार छात्र थे, जिन्हें उनके गुरुओं के सहित केवल पांच सौ मुतत्रमानों ने काट डाला, और उन्होंने आत्म-रक्षा और गुरु एवं देश की रक्षा का प्रयास तक नहीं किया, अहिंसा का मंत्र जपते रहे । लेकिन गौतम बुद्ध से जब मगध के महामन्त्री वर्षकार ने पूछा
था कि वैशाली को मगध हरा क्यों नहीं पाता है, तो बुद्ध ने वृज्जि संघ के सात गुण गिनाए थें जिनके कारण बुद्ध ने उसे अजेय कहा था । अर्थात आत्म-रक्षा के लिए युद्ध और हिंसा को गौतम बुद्ध गुण मानते थे, अवगुण नहीं । अजन्ता-एल्लोरा की बौद्ध पोर्नोग्राफी से हिन्दू मंदिरों की
पोर्नोग्राफी तो और भी बढ़कर थी । धर्म के नाम पर अधर्म, मंदिरों और मठों में व्यभिचार, राजनीति में अनाचार, इन्हीं अवगुणों ने राष्ट्र का नाश किया । अतः प्राचीन शिक्षा पद्धति का पतन ही भारत के पतन का कारण बना । जबतक प्राचीन शिक्षा पद्धति अक्षुण्ण रही, कोई भी ताकत इस देश का कुछ
नहीं बिगाड़ सकी । न तो राजधन का लोभ, न अभिभावकों से फीस की उगाही । भीख मांगकर छात्रों को पढ़ाने वाले निस्वार्थ ब्राह्मणों को भूदेव माना जाता था । चारों वर्ण अपने कर्त्तव्य का पालन करते थे । निस्वार्थ भाव से समाज को शिक्षित करना और धार्मिक अनुष्ठानों का सम्पादन करना ब्राह्मण का
कार्य था , निस्वार्थ भाव से बिना धन के लोभ के समाज की रक्षा करना क्षत्रिय का कर्त्तव्य था, पूरे समाज का भरण-पोषण करना वैश्य का कार्य था , और शेष लोगों का कार्य था इन तीनों की सेवा करना । लेकिन ये तीन वर्ण भी तो समाज की सेवा ही करते थे । वर्णाश्रम धर्म सेवा की भावना पर आधारित था ।
शिक्षा बहुआयामी थी । संस्कारों को सुधारकर चरित्र का निर्माण, इहलौकिक कर्तव्यों के निर्वाहन हेतु व्यवहारिक शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ  आध्यात्मिक ज्ञान, ये सब शिक्षा के अंग थे । पाठ्यक्रम का तीस या चालीस प्रतिशत सीखकर परीक्षा पास करके कागज़ के टुकड़े पर डिग्री लेने की
म्लेच्छ परम्परा का प्रचलन नहीं था । पंडित की डिग्री तो उसके माथे में भरा ज्ञान था । हमेशा शास्त्रार्थ का भय बना रहता था, अतः आजीवन सीखते रहने की विवशता बनी रहती थी । शास्त्रार्थ भी खुलेआम सबके बीच में, बंद कमरे में नहीं, अतः कदाचार की कोई गुन्जाइश नहीं । सबसे बड़ी बात यह कि
शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य-आश्रम की अनिवार्यता थी । फ्रायड ने भी लिखा था की लिबिडो (काम-ऊर्जा) के उदात्तीकरण ( सब्लिमेशन) के फलस्वरूप ही विज्ञान या कला के क्षेत्र में कोई भी महत्वपूर्ण कार्य संभव है । लेकिन अब तो बच्चों को भी काम-वासना का विशेषज्ञ बनाने के लिए गंदे फिल्म और हर
जगह गंदी बातों का प्रचलन करवाया जा रहा है । अनेक पढ़े लिखे लोग भी यह मानने के लिए तैयार नहीं कि काम का उद्देश्य प्रजाति का संरक्षण है, न की इन्द्रियों का तुष्टिकरण और मनोरंजन । इन्द्रिय-निग्रह नहीं तो शिक्षा बेकार है ! गीता में ब्राह्मण के नौ स्वाभाविक गुण गिनाये गए हैं :
शम-दम-तप-शौच-आर्जव-क्षान्ति-ज्ञान-विज्ञान-आस्तिक्य । इसी प्रकार अन्य वर्णों के भी स्वाभाविक गुण बताये गए हैं । अब ये गुण किसी भी वर्ण में नहीं । अतः सभी जातियां वर्ण-संकर हैं, वर्ण के गुणों और कर्तव्यों से च्युत हैं । शिक्षा की परिभाषा भी वर्ण-संकरों और म्लेच्छों ने बदल दी है
। दूसरों को प्रतियोगिता में पछाड़ दो, किसी भी 'तकनीक' से परीक्षा में अधिक नंबर ले आओ, अधिक से अधिक डिग्रियां दुम की तरह खोंस लो, और इस प्रकार तेज-तर्रार धूर्त शैतान बन जाओ तो भगवान और खुदा का बाप भी कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, ऐसे ही संस्कार आधुनिक शिक्षा पद्धति छात्रों में भरती
है । भारतीय संस्कृति थोड़ी बहुत बची है तो अशिक्षित या अल्प-शिक्षित लोगों के कारण , जिन्होंने पांच हज़ार वर्षों के कलियुग की कालिमा के बीच भी ऋषियों के ज्ञान और संस्कार को व्यवहांर में कुछ न कुछ बचाकर रखा है ।
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