आज संदूक में से अपनी कविता को निकाल कर उसके माथे का टीका पोंछ दिया,हटा दी वो लाल वाली बिंदी और उंगली से घिसता रहा उस आलते को जो लगा था उसकी हथेली पर। क्या करता फिर उस बिछिये का और उन तीन बची हुई हरी चूडियों का तो उतार कर रख दिया अर्थी पर..
सुनो कविता, तुम विधवा भी सुंदर लगती हो..
मैंनू तेरा शबाब लै बैठा

मैंनू तेरा शबाब लै बैठा,
रंग गोरा गुलाब लै बैठा।

किन्नी पीती ते किन्नी बाकी ए
मैंनू एहो हिसाब लै बैठा

चंगा हुंदा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब लै बैठा

दिल दा डर सी किते न लै बैठे
लै ही बैठा जनाब लै बैठा...
हजारों औरतें जिंदगी में आई .....
जितनी मुझे मोहब्बत मिली आप सोच भी नहीं सकते ...

किसी के होठों से , किसी के गालों से , किसी के बालों से , किसी की आँखों से , किसी की उँगलियों से , पैरों से ...

पर पूरी एक तस्वीर कभी नहीं मिली ...
“मुझे यौवन में मरना है, क्यूंकि जो यौवन में मरता है वो फूल या तारा बनता है, यौवन में तो कोई किस्मत वाला ही मरता है” कहने वाले शायर की ख़्वाहिश ऊपर वाले ने पूरी भी कर दी. मात्र छत्तीस वर्ष की उम्र में शराब, सिगरेट और टूटे हुए दिल के चलते 7 मई 1973 को वो चल बसे थे .....
इससे अधिक और क्या कहा जाए उस कवि के बारे में, कि उसके गीत और कविताएं लोगों की जुबान पर थे. पर उसका नाम नहीं पता था. यही तो कवि और उसकी कविता की सार्थकता है कि वो लोगों के ह्रदय में जा बैठा. जबकि लोग उसके नाम से अनजान थे....

"ऐसा नन्हा सा बच्चा सा आदमी नहीं देखा मैंने आज तक .....
किशोरावस्था में उन्हें पास ही के किसी गांव के मेले में एक लड़की से प्यार हो गया. उस लड़की का नाम मैना था जिसे खोजते हुए बटालवी उसके गांव तक गये थे. उस लड़की के भाई से दोस्‍ती गांठी ली थी. और दोस्त से मिलने के नाम पर वो रोज मैना के गांव चले जाते थे.
लेकिन मैना कुछ ही दिन में बीमारी हुई और चल बसी. उसकी याद में फिर बटालवी ने एक लंबी कविता लिखी ‘मैना’.
युवावस्था में उन्हें फिर पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया. दोनों के बीच जाति भेद होने के कारण उनका विवाह नहीं हो पाया और लड़की की शादी किसी ब्रिटिश नागरिक से करा दी गई.

इस “गुम हुई लड़की” पर शिव ने ‘इश्तेहार’ शीर्षक से कविता लिखी थी ...
शिव बटालवी की बरसी (6 मई 1973 को उनका देहांत हुआ था) पर अवतार पाश और शिव बटालवी की पहली मुलाकात की दास्तां

"हमारी पहली मुलाकात (पाश और शिव की) एक झगड़े के रूप में हुई। उसे नकोदर किसी कॉलेज में कविता पढ़ने आना था।
मुझे जेल से रिहा होकर आए कुछ ही दिन हुए थे। मित्र विद्यार्थी मुझे भी साथ ले गए...उसने (शिव ने) दाढ़ी बढ़ा रखी थी। आज सामर्थ्य से ज्यादा पी हुई लग रहा था।
जब वो स्टेज से नीचे उतरा तो हमने उसे एक तरफ बुला लिया। और भी बहुत सारे लोग उसके आसपास जुड़े थे.....

मैंने कहा- "आपकी कुछ नई नज़्में बहुत ही अच्छी हैं, और हम सभी आपको आपकी कविता के इस नए मोड़ के लिए मुबारकबाद देते हैं।
- "कौनसी नई नज़्में" शिव ने पूछा

- बुड्ढी अख, फ़र्क अते.....

- तो पहले क्या मैं बकवास ही लिखता रहा ??

- नहीं पहले भी बढ़िया लिखते थे पर अब और भी अच्छा लिखने लगे हो।
वो (शिव) कुछ गुस्से में आ गया लगता था। उसके हाथ में कोई किताब थी। उसने पटक कर जमीन पर मारी। मेरे साथ वाले काफी खीज गए थे। मैंने (पाश ने) किताब उठा ली और कहा- "इतना ख़ूबसूरत लिखने वाले को शराब में बेसूरत होकर कविता पढ़ने की आदत छोड़ देनी चाहिए।"
- "ये बुर्ज़ुआ आदत है" किसी दूसरे ही के मुंह से निकला,उसका गुस्सा शिखर पर आ गया। उसने मुझे बाजुओं पर से पकड़ लिया।

- "मैं बुर्ज़ुआ हूँ? ये घड़ी तूने पहनी है। ये टैरालिन की कमीज़ तूने पहनी हुई है। मेरे पास कुछ भी नहीं। और तुम मुझे बुर्ज़ुआ कहते हो?"
शिव ने अपना कोट उतारकर फैंकने की कोशिश की।

- "ले ये कोट ही है जो तेरे से ज्यादा पहन रखा है, अगर मैं ये कोट ही उतार दूँ तो क्या मुझे इंकलाबी मान लोगे ?"
- "इंकलाबी होना या हट जाना कोई कोट उतारने या पहनने जैसा अमल नहीं है।" मैंने (पाश ने) उसके कोट के बटन बंद करते हुए कहा।

- "तुम बड़े..... तुम मुझे मार्क्सवाद की एक भी लाइन कोट करके बता दो।"

- "ये किस ख़ुशी में ?"
- "तुमने मार्क्सवाद की एक भी किताब पढ़ी है ? तूं किसी एक की लाइन सुना" शिव ने कहा

"पढ़ाओ भई इसे माओ का ग्रन्थ।"पीछे से कोई बोला तो सारी भीड़ में ठहाके फूट पड़े। समागम के प्रबन्धक घबरा के दौड़े और घबराए शिव को खींच के ले गए।
ये हमारी पहली कसैली मुलाकात थी। मैं उदास सा होकर समागम बीच में छोड़कर गाँव को चला गया।

मेरी उससे दूसरी मुलाकात दिल्ली में अमृता प्रीतम के घर हुई। अमृता ने बात छेड़ ली, "पाश ,झगड़े वाली बात कैसे हुई थी ?"
पाश शब्द सुन के वो चौंका जैसे कि अचानक उसे पता लगा हो कि मैं वहां बैठा हूँ,- "पाश मैं बहुत रोया जब मुझे पता चला कि मेरे साथ झगड़ा करने वाला तूं ही है। मुझे यकीन नहीं हुआ की तूं ऐसा कैसे कर सकता है ?
"मैं तेरा ख़त पढ़कर अनेक बार रोया, जो आदमी इतना सुंदर ख़त लिख सकता है वो मेरी इस तरह बेअदबी कैसे कर सकता है ? पाश तूं भूषण से पूछ लेना कि मैं कितना रोया तेरा खत पढ़ पढ़कर, मुझे कई रात नींद नहीं आई, देख तेरे ख़त के बारे कविता लिखकर मैंने उसे अमर कर दिया।"
शिव बहुत भावुक हो गया था। अमृता ने बीच में पड़कर बात का रुख बदला।

(वर्तमान दे रूबरू) 'तलवंडी सलेम नूं जांदी सड़क' से
(पाश ने शुरूआती दौर में शिव को उसके गीत पढ़कर एक 7-8 पन्नों का ख़त लिखा था जिस पर बाद में शिव ने कविता लिखी और झगड़े के बाद शिव को पता चला कि वो उभरता इंकलाबी कवि युवाओं का चहेता पाश है)

अनुवाद- सतीश छिम्पा
साभार - चंडी दत्त शुक्ला
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